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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान जब वर्धमानसूरि को ताम्बूल भेंट किया तो वर्धमानसूरि बोले- “राजन् ! साधुओं को तांबूल खाना उचित नहीं है क्यों कि
“ब्रह्मचारी यतीनां च विधवानां च योषिताम् ।
ताम्बूल-भक्षणं विप्रा गो-मांसान्न विशिष्यते ॥" (अर्थात् ब्रह्मचारी, यति और विधवा स्त्रियों को ताम्बूल भक्षण करना गो मांस के समान है।)३२
यह सुन कर उपस्थित सभाजन आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा से नतमस्तक हो गये । वर्धमानसूरि जी ने कहा कि-जिनेश्वरसूरि शास्त्रार्थ करेंगे। शास्त्रार्थ में चैत्यवासियों की
ओर से सुराचार्य प्रमुख वादी थे। उन्होंने कहा-“जिनगृह वास ही मुनियों के लिए समुचित है और वहीं पर निरपवाद ब्रह्मव्रत का पालन संभव हो सकता है"अर्थात्वसतिवास अपवाद से रहित नहीं है, इस लिए त्याज्य है । सूराचार्य ने अनेक युक्तियों द्वारा चैत्यवास का समर्थन किया।
तदन्तर जिनेश्वरसूरि ने कहा कि गणधर रचित ग्रंथ ही प्रमाणभूत हैं। परन्तु हमारे पास ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं ।' अंत में चैत्यवासियों के मठों से सिद्धांतग्रंथ मंगाये गये । प्राप्त ग्रंथों में प्रथम जिनेश्वरसूरि जी के हाथ दशवैकालिक ग्रन्थ आया। उसमें सर्वप्रथम गाथा निकली
अन्नटुं पगडं लेणं, भएज सयणासणं। उच्चार-भूमि-संपन्नं, इत्थी-पसु-विवज्जियं ।।
(दशवै. सू. ४३९) (अर्थात्- साधु को ऐसे स्थान पर रहना चाहिये, जो स्थान साधु के निमित्त नहीं, किंतु अन्य किसी के लिए बनाया गया हो, जिसमें खाने-पीने और सोने की सुविधा हो, जिसमें मल-मूत्र त्याग के लिए उपयुक्त स्थान निश्चित हो, जो स्त्री, पशु आदि से वर्जित हो।)
इस प्रकार की वसति में साधुओं को रहना चाहिए, न कि देवमंदिर में।
इस तरह जिनेश्वर सूरिने युक्तिपूर्वक चैत्यवास का खंडन करते हुए वसतिमार्ग का प्रतिपादन किया।
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खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-पृ.३.
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