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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
पुरोहित ने चतुःशाला में रहने का स्थान दिया । पुरोहित के यहाँ “वसतिनिवासी कोई नवीन साधु आये हैं ।" यह जान कर चैत्यवासियों ने वसतिवासी मुनियों का प्रतिकार किया । सम्पूर्ण शहर में चर्चा फैला दी कि "मुनिरूप में गुप्तचर आये हैं ।" यह बात राजा दुर्लभराज तक पहुँची। राजा ने राज पुरोहित को बुलाया - 'इन धूर्तलोगों को तुमने क्यों स्थान दिया है ?'
पुरोहित ने कहा- 'यह बात गलत है। मेरे मकान में जो महात्मा ठहरे हैं, वे साक्षात् धर्म की मूर्ति हैं । इन साधुओं पर जो भी दोष लगाया गया है, उसे जो भी सिद्ध करेगा उसे मैं एक लाख पारुत्थ (एक प्रकार की मुद्रा ) ईनाम में दूंगा ।' २९
“प्रभाव कचरित" के अनुसार कहा जाता है कि पुरोहित ने राजसभा में कहा कि 'मैने केवल गुणग्राहकता की दृष्टि से इन साधुओं को आश्रय दिया । चैत्यवासियों इनका बहुत अपमान किया है। इसमें यदि मेरा अपराध हो तो मुझे शिक्षा दें । '
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मत्पुरे गुणिनः कस्माद् देशान्तरत आगताः । वसन्तः केन वार्येत को दोषस्तत्र दृश्यते ॥
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चैत्यवासियों ने श्रमणों का विरोध करते हुए राजा को याद दिलाया कि महाराजा वनराज के समय " वनराज - विहार" नामक मंदिर की स्थापना कर के यह व्यवस्था की गई थी कि - "यहां केवल चैत्यवासी यतिजन ही ठहर सकते हैं।'
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राजा ने कहा-' - गुणीजनों का सन्मान तो अवश्य होना चाहिए ।' उसने एक उपाश्रय बनाने के लिए एक ब्राह्मण को नियुक्त किया। संभवतः उसी समय से वसतियों अर्थात् उपाश्रयों की व्यवस्था शुरू हुई।
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“गणधरसार्द्धशतक वृत्ति” तथा “ युगप्रधान गुर्वावलि" के अनुसारचैत्यवासी लोगों ने नूतन मुनियों को नीचा दिखाने के कई प्रयत्न किये। अन्त में चैत्यवासी और वर्धमानाचार्य मुनियों का दुर्लभराजा के समक्ष शास्त्रार्थ करना निश्चित हुआ । ८४ चैत्यवासी तथा वर्धमानसूरि शिष्य सहित राजसभा में पधारे। राजा दुर्लभराज ने दोनों पक्षों का सन्मान ताम्बूल से किया तो चैत्यवासियों ने सहर्ष तांबूल स्वीकार कर लिया। ३१
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खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि - पृ. २.
ततः प्रभृति सञ्जज्ञे वसतीनां परंपरा ।
महद्मः स्थापितं वृद्धिमश्रुते नात्र संशयः ॥ ( प्रभावकचरित-अभयदेवसूरिचरित - ८९ ) चैत्यवासी यति तांबूलभक्षण भी करते थे, जो कि जैन श्रमणों के लिए निषद्ध है। देखेंखरतरगच्छ का इतिहास, प्रथम खण्ड, विनयसागर- पृ. ७
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