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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
उसी नगर में धर्मिष्ठ लक्ष्मीपति श्रेष्ठी रहते थे। दोनों भाईयों से सेठ प्रभावित हुए । सेठ के अधिक आग्रह पर दोनों उनके घर रहने लगे। दोनों भाईयों की स्मरणशक्ति प्रखर थी ।
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एक दिन उन दोनों भ्राताओं को सेठ लक्ष्मीपति वर्धमानसूरि जी के पास ले गये, आचार्य भी दोनों भाईयों से प्रभावित हो गये । सत्संग का प्रभाव बढा, दोनों दीक्षित हुए। थोड़े ही समय में दोनों शास्त्रों में पारंगत हो गये । वर्धमानाचार्य ने योग्यता देख कर दोनों को आचार्यपद प्रदान किया । अब वे जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए । वर्धमानसूरि ने दोनों की योग्यता देख कर, चैत्यवासियों के मिथ्याचार का प्रतिकार करने के लिए उन्हें प्रेरित किया और आदेश दिया कि वे अणहिलपुर पत्तन जाएँ और सुविहित साधुओं के लिए जो विघ्न बाधाएँ है, उनको अपनी शक्ति और बुद्धि से दूर करें । अतः दोनों विहार कर अणहिलपुरपत्तन पहुँचे ।
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उस समय पाटन में चैत्यवासियों का विशेष प्राबल्य था । सुविहित साधुओं को वहाँ ठहरने के लिए स्थान तक नहीं मिलता था । घूमते-घूमते अंत में दोनों राजपुरोहित घर पहुँचे । पुरोहित साधुओं की विद्वत्ता पर मुग्ध हो गया । महात्माओं ने अपनी सारी कठिनाई पुरोहित के सामने रखी। पुरोहित ने उन्हें अपनी चन्द्रशाला में रहने का स्थान दिया। वहाँ पर रह कर वे दोषों से रहित निस्पृह भिक्षाग्रहण करते थे ।
" गणधरसार्द्धशतक" तथा " युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि" में इस प्रसंग को कुछ अलग बताया है :- वर्धमानसूरि अपने सत्तरह शिष्यों को साथ ले कर भामह नामके व्यापारी के संघ के साथ चले । क्रम से विहार करते हुए अणहिलपुर पत्तन पहुँचे। वहां कहीं रुकने का स्थान न मिला। गुरु आज्ञा ले कर, राजपुरोहित के घर पहुँचे । पुरोहित को आशीर्वाद दिया । उसे सुन कर पुरोहित खुश हुआ। उसने सोचा कोई विचक्षण व्रती मालूम होते हैं। पुरोहित ने पूछा- 'कहां से पधारे, कहां रुके हैं ?'
'हम दिल्ली से आये हैं, इस देश में हमारे विरोधी यतिगण होने के कारण कोई स्थान नहीं दे रहा है । '
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प्रभावक चरित- अभयदेवचरित के पद्य ४३, ४४, ४५, पृष्ठ- १६२.
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