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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आपने आबू तीर्थ पर मंत्रीश्वर विमलशाह के द्वारा निर्मित भव्य मंदिरों की प्रतिष्ठा करायी।३ “आचार्य वर्धमानसूरि जी''की ज्ञान-प्रखरता तथा चारित्रनिष्ठा से संघ अत्यंत प्रभावित था। आचार्य वर्धमानसूरि जी शास्त्रार्थ में भी निपुण थे। आपकी साहित्य सेवा भी अति प्रशंसनीय है। कथा-साहित्य में आपका विशेष प्रदान है। आप के द्वारा रचित “उपदेशपद टीका'' एवं “उपदेश माला बृहद्वृत्ति” उपलब्ध है। __ आचार्य वर्धमानसूरि का स्वर्गवास कब हुआ उसका निश्चित संवत् तो नहीं मिलता है। फिर भी आबू तीर्थ की प्रतिष्ठा पश्चात् आपने अनशन कर के देवगति प्राप्त की ऐसे उल्लेख मिलते हैं। आपके नामोल्लेख वाला प्रतिमालेख कटिग्राम में सं.१०४९ का मिला हैं। २५ आपने सं.१०२६ में संचेती और १०७२ में लोढा और पीपाडा गोत्रो की स्थापना की।२६ आचार्य वर्धमानसूरि जी ने स्वयं चैत्यवास का त्याग कर के विशुद्ध संयमित जीवन-व्यतीत किया। लेकिन चैत्यवास के विरोध में कोई ठोस कदम नहीं उठाये । परन्तु अपने शिष्य “जिनेश्वरसूरि" को इस कार्य में प्रेरित किया। “जिनेश्वरसूरि” ने एक महान और अद्भुत कार्य किया। आप चैत्यवास का उन्मूलन करने में सक्षम रहे। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि-यद्यपि उपरोक्त कार्य में आपने स्वतंत्र रूप से अधिक अधिभार न ग्रहण करके, श्री जिनेश्वर सूरि जी के कार्यो में भरसक और महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। आपके द्वारा प्राप्त सहयोग और प्रेरणा की विशेष चर्चा श्री जिनेश्वरसरे के जीवन संबंधी निम्न लेखन में की गई है। आचार्य जिनेश्वरसूरि आचार्य जिनेश्वरसूरि के जन्म संवत् की निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। 'प्रभावकचरित' के अनुसार जिनेश्वर का नाम श्रीधर था । २७ आप मध्यदेश अर्थात् वर्तमान उत्तरप्रदेश के निवासी थे। आपके पिता का नाम कृष्ण था, जो जाति से ब्राह्मण थे। आपके अनुज का नाम श्रीपति था। दोनों भाई बड़े प्रभावशाली और मेधावी थे। देशाटन के लिए दोनों धारानगरी पहुँचे। खरतरगच्छ पट्टावली-२-जिनविजयजी-२१. २४. वही। ओसवाल जाति का इतिहास-सुखसम्पतराजजी भण्डारी. पृ.२९ २६. वहीं । जिनेश्वरसूरि का जीवन देखने के लिये प्रभावक चरितान्तर्गत अभयदेवसूरि चरित पद्य ३१ सं ९० तक देखें पृष्ठ-१६२-१६३, २७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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