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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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जिनेश्वर सूरि की महान् सेवाओं के साथ-साथ उनके गुरु वर्धमान सूरि तथा उनकी शिष्य - परम्परा में आनेवाले विद्वान प्रभावक आचार्यों के सम्बन्ध में भी कुछ प्रकाश डालना जरूरी है, कारण कि इन आचार्यों ने भी चैत्यवासी विकृतियों को दूर कर के श्रमण संस्था को संयमशील बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था । इस आचार्य परम्परा के श्रमणों द्वारा प्रदत्त योगदान का वर्णन विस्तृत रूप से आगे है आचार्य वर्धमानसूरि
चैत्यवास ने जैनधर्म की जो विडंबना की थी उसे देख कर कई चैत्यवासी यतिजनों के मन में भी क्षोभ उत्पन्न होता था । परन्तु उसका प्रतिकार करने का साहस विरले ही कर सकते थे। ऐसे साहसी और सच्चे यतियों में श्री वर्धमानसूरि जी का नाम अग्रगण्य है।
" गणधर सार्द्धशतक बृहद्वृत्ति" तथा "युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि" और 'प्रभावक चरित" के अनुसार आ. श्री वर्धमान सूरि जी के जन्म एवं गृहस्थ जीवन सम्बन्धी जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
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आचार्य वर्धमानसूर के गुरु आचार्य जिनचंद्र थे, जो अभोहर देश के चौरासी चैत्यों के अधिपति थे । २० अर्थात् वे चैत्यवास परंपरा के आचार्य थे ।
श्री वर्धमानसूरि जी को सम्यक् शास्त्रज्ञान प्राप्त होने से, चैत्यवास के प्रति विरक्ति उत्पन्न हुई । विशुद्ध संयम - जीवन बिताने के लिए उन्होंने गुरु से आज्ञा मांगी। गुरुजी ने सोचा कि इसके विचारों में परिवर्तन लाने के लिए उसे ही जिम्मेदारी सौंप दूँ । अतः गुरु ने उन्हें आचार्यपद पर स्थापित किया । २१ फिर भी वर्धमानाचार्य का मन प्रलोभन में न आया। अन्त में उन्हों ने गुरुआज्ञा ले कर दिल्ली, वादली प्रदेशों की ओर प्रस्थान किया। दिल्ली में वे चारित्रनिष्ठ आचार्य " उद्योतनाचार्य जी" से मिले, उन्हीं के पास पुनः दीक्षा ग्रहण की। उद्योतनाचार्य जी ने आ. वर्धमान की योग्यता - पात्रता देख कर उन्हें आचार्यपद पर विभूषित किया। अब “आचार्य वर्धमानसूरि जी " पर संघ संचालन की जिम्मेदारी बढ गई ।
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२१.
२२.
(क) खरतरगच्छपट्टावली- २ श्री जिनविजयजी, प्र. २०
(ख) देखें - प्रभावक चरित - ( अभयदेवसूरि चरितपद्य ३३-३४, ५.२६२)
खर. युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि - आचार्य जिनविजयजी-१.
वही - १.
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