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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
मारवाड़ में भी चैत्यवासियों का प्रभुत्व था । चैत्यवासियों के विरुद्ध में श्री अभयदेव सूरि जी के शिष्य जिनवल्लभ सूरि जी ने भी कदम उठाये। उन्हों ने आगमों का आधार ले कर कवित्व शक्ति के बल पर चैत्यवास का खंडन किया।
अपनी कृति “संघपट्टक'' में उन्हों ने चैत्यवासियों के शिथिलाचार और सूत्र विरुद्ध प्रवृत्ति का कडा विरोध किया। आपने विधि-चैत्यों की प्रतिष्ठा करवायी, श्रावकों को आयतन विधि (विधि पक्ष) का उपासक बनाया। जिनमंदिर में रात्रि के समय नैवेद्य, रास, नृत्य आदि के निषेध के लिए शिलालेखों के रूप में विधि अंकित करवा दी।
बारहवीं शताब्दी में शिथिलाचार का प्रभुत्व था। वि.सं.११४७ में नाडोल चौहान नृपति जोजलदेव ने आज्ञा घोषित करवायी कि वेश्याएँ परिवार सहित मंदिर में यात्रा करें। जिनवल्लभसूरि जी ने उसका विरोध किया, १९ तथा चैत्यवास के उन्मूलन में अथक प्रयास किया।
आ. श्री. जिनवल्लभसूरि के बाद आ. श्री जिनदत्तसूरि जी और श्री जिनपति सूरि जी ने सुविहित मार्ग का प्रचार जारी रखा। जिन्हों ने अपने प्रखर-पाण्डित्य, प्रकृष्ठ चारित्र और प्रचण्ड व्यक्तित्व के प्रभाव से गुजरात, राजस्थान, मेवाड़, वागड़, सिन्ध
और दिल्ली तक के प्रदेशो में अपने नये-नये भक्त बनाये । इन्हों ने स्थान-स्थान पर अपने पक्ष के नये जिनमंदिर और जैन-उपाश्रय तैयार करवाये । परिणाम स्वरूप वसतिवासी मुनियों में तथा जैन समाज में सुसंस्कारो का बीजारोपण हुआ।
इस तरह जिनेश्वरसूरि और उनके शिष्य समुदाय जिनका मुख्य ध्येय चैत्यवासी जैसी विकृत परम्परा का उन्मूलन करना और सुविहित मार्ग का प्रचार करना ही मानों हो गया।
विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में जैन यति वर्ग में नूतन युग की उषा का आभास होने लगा था जिसका प्रकट प्रादुर्भाव जिनेश्वरसूरि के गुरु वर्धमान सूरि के क्षितिज पर उदित होने पर दृष्टिगोचर हुआ।
१८. १९.
देखें-चर्चरी, उपदेशरसायनरास । खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास-१६०.
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