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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ग्यारहवीं शताब्दी चैत्यवासी यतिजनों के लिए उत्कर्ष की वेला थी। उस समय चैत्यवास परम्परा विस्तृत रूप में थी। गुजरात, राजस्थान, मारवाड़ सभी क्षेत्रों में उनका प्रभुत्व था।
गुजरात तो चैत्यवासियों का केन्द्र था । १४ गुजरात की राजधानी अणहिलपुर पाटन थी, जो उस समय सारे भारतवर्ष में एक प्रधान नगरी समझी जाती थी और जो समृद्धि और संस्कृति की दृष्टि से ख्याति रखती थी। वहाँ जैन धर्म के सैकड़ों देवमंदिर बने हुए थे। हजारों की संख्या में जैन श्रावक रहते थे। व्यापार-वाणिज्य में जैनों का स्थान ऊंचा था। विमल मंत्री जैसे अनेक श्रावक उस नगर में निवास करते थे। १५ चैत्यवासी आचार्य अधिक संख्या में एक साथ वहाँ रहते थे। चैत्यवासी यतिजनों का व्यावहारिक विषयों में बहुत कुछ योगदान रहा है। फिर भी चैत्यवासी परम्पराने जैन संस्कृति की उजवलता को निर्विवाद रूप से क्षति पहुँचायी है । ऐसे शिथिलाचारी यतियों का समाज पर आधिपत्य होने पर भी सच्चे श्रमण धर्म का पालन करने वाले मुनियों का भी अभाव न था। ऐसे अनेक श्रमणों ने चैत्यवासियों के विरुद्ध क्रांति मचाई। इसमें आमूल-चूल परिवर्तन करने का श्रेय “आचार्य जिनेश्वरसूरि' को है जो ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध वि.सं.१०८० में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर के प्रथम वार विजयी बने। १६ चैत्यवासी आचार्य पराजित हुए, तभी से सर्वप्रथम गुजरात में “वसति मार्ग' की स्थापना हुई। १७
___खरतरगच्छ के प्रवर्तक आचार्य जिनेश्वरसूरि जी ने चैत्यवासियों के विरुद्ध क्रान्तिकारी कदम उठाए । उसमें उन्हें सफलता मिली । आचार्य जिनेश्वरसूरि जी के पश्चात् आ. श्री अभयदेव सूरि जी, और आ. जिनवल्लभसूरि ऐसे आचार्य हुए जिन्होने चैत्यवासियों के विरुद्ध आन्दोलन चालू रखा।
१३.
खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास-पृ.५९. खरतरगच्छ का आदिकालीन इतिहास, पृ.१५१. कथाकोष-प्रकरण-जिनविजयजी, पृ.३. खर. वृद्धाचार्यप्रबन्धावली, जिनविजयजी, पृ.९० खरतरगच्छ युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि-आचार्य जिनविजयजी-४.
१७.
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