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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ही उनका मठ या वासस्थान था और इसलिए वे चैत्यवासी के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे। इनके साथ उनके आचार-विचार भी बहुत से ऐसे शिथिल अथवा भिन्न प्रकार के थे जो जैनशास्त्रों में वर्णित निर्ग्रन्थ जैन मुनि के आचारों से असंगत दिखाई देते थे। वे एक तरह से मठपति थे।"
चैत्यवासियों का प्रभाव राज्याधिकारियों पर भी अत्यधिक था। प्रभावकचरित' के अनुसार-अणहिलपुर पत्तन के संस्थापक चापोत्कट वनराज (वि.सं.८०२)आचार्य शीलगुणसूरि के शिष्य थे । वे आचार्य चैत्यवासी थे। अतः वनराज ने आज्ञा घोषित कर रखी थी कि मेरे राज्य में चैत्यवासी मुनियों को छोड़ कर अन्य सुविहित मुनि ठहर नहीं सकते।
__ राजदरबार में इन चैत्यवासी यतिजनों का बहुत बड़ा प्रभाव था। राजवर्ग और जनसमाज में इन चैत्यवासी यतिजनों की प्रतिष्ठा जमी हुई थी।
अतः ये यतिजन समाज और संस्कृति के लिए घातक सिद्ध हो गये थे।
महोपाध्याय विनयसागरजी कहते है कि:- चैत्यवासियों का आचार उत्तरोत्तर शिथिल होता ही गया और कालान्तर में चैत्यालय भ्रष्टाचार के अड्डे बन गये, तथा वे शासन के लिए अभिशाप रूप हो गये। ११
... चैत्यवासी आचार्य आचार से शिथिल थे। किन्तु उन में से कई शिक्षा और साहित्य की दृष्टि से प्रभावक थे। शीलगुणसूरि, देवचन्द्रसूरि, द्रोणाचार्य, गोविन्दाचार्य, सूराचार्य आदि प्रभावशाली, प्रतिष्ठासम्पन्न और विद्वदग्रणी चैत्यवासी थे। चैत्यवासी यतिजन उस समय जैन समाज के धर्माध्यक्षत्व का गौरव प्राप्त कर रहे थे। ऐसा होने पर भी उनके आचार की शिथिलता ने जैन धर्म को पतन की ओर धकेला था। चैत्यवास का इस प्रकार लगभग एक हजार वर्ष तक प्रभुत्व रहा था। १२
कथा-कोष प्रस्तावना, जिनविजयजी-पृ.३. चैत्यगच्छ यतिव्रात, सम्मतो वसतान मुनिः । नगरे मुनिभिर्नात्र वस्तव्यं तद्सम्मतैः ।। (७६) (प्रभावक- चरित्र, पृ. १६३) वल्लभ .. भारती - महो. विनयसागर, पृ.१७. जैन धर्मनी प्राचीन अने अर्वाचीन स्थिति-श्रीमद् बुद्धिसागरजी-पृ.७९.
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