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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान यदि ये लोग मुनि के शास्त्र-सम्मत आचार-विचार पर दृष्टिपात करेंगे तो उनका भ्रम दूर हो जायेगा।
अपने कथाकोषप्रकरण में आ. श्री. जिनेश्वरसूरि ने जैन यतियों के कर्तव्यों का निर्देश करते हुए लिखा है-“जैन शास्त्रों के विधान के अनुसार जैन यतियों का मुख्य कर्तव्य केवल आत्म-कल्याण करना है। उसकी आराधना निमित्त शम, दम, आदि दश-विध यतिधर्म का सतत पालन करना है। जीवन यापन के निमित्त जहां कहीं जैसा भी लूखा-सूखा शास्त्रोक्त विधि के अनुकूल प्राप्त भिक्षान्न का उपभोग कर, अहर्निश ज्ञान-ध्यान में निमग्न रहना और जो कोई मुमुक्षु-जन अपने पास चला आवे उसे एक मात्र मोक्ष का उपदेश देना है । इसके सिवा यति को गृहस्थजनों का किसी प्रकार का संसर्ग नहीं करना चाहिए और न धर्म से अन्य प्रकार का किसी को उपदेश ही देना चाहिए। किसी स्थान में बहुत समय तक नियतवासी न बन कर सदैव परिभ्रमण करते रहना चाहिए और वसति में न रह कर गांव के बाहर जीर्ण-शीर्ण देवकुलों के प्रांगणों में एकांत निवासी हो कर किसी न किसी तरह का सदैव तप करते रहना ही जैन यति का शास्त्र-विहित एक मात्र जीवन क्रम है।"६
सुविहित मुनियों को उक्त नियमों का पालन करना आवश्यक है।
चैत्यवासी इन नियमों का पालन नहीं करते थे। चैत्यवासियों के आचारविचार की कड़ी आलोचना सर्वप्रथम हमें आचार्य हरिभद्रसूरि कृत “संबोधप्रकरण' में मिलती है। * तथा जिनवल्लभसूरि जी कृत "संघपट्टक' में उल्लेख मिलता है। " आचार्य जिनवल्लभसूरि जी के समय चैत्यवासियों की जो स्थिति थी, उसके विषय में मुनि जिनविजय जी लिखते हैं :
“इनके समय में श्वेताम्बर जैन संप्रदाय में उन यतिजनों के समूह का प्राबल्य था, जो अधिकतर चैत्यों अर्थात् जिनमंदिरों में निवास करते थे । ये यतिजन जैन देव मंदिर, जो उस समय चैत्य के नाम से विशेष प्रसिद्ध थे, उन्हीं में अहर्निश रहते, भोजनादि करते, धर्मोपदेश देते, पठन-पाठनादि में प्रवृत्त होते और सोते-बेठते थे। अर्थात् चैत्य
कथा-कोष प्रस्तावना-जिनविजयजी, पृ.३-४ संबोध प्रकरण-आ. हरिभद्रसूरि संघपट्टक, प्रस्तावना, पृ.१२.
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