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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
"ये
कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं । पूजाकरने का आरम्भ-समारम्भ करते हैं, देव - द्रव्य का उपयोग करते हैं, जिन मंदिरों और शालाओं का निर्माण करवाते हैं। रंग-बिरंगे सुगंधित धूपवासित वस्त्र पहनते हैं, स्वच्छन्दी वृषभ के समान स्त्रियों के सम्मुख गाते हैं और भिन्न-भिन्न प्रकार के उपकरण रखते हैं। जल, फल, फूल इत्यादि सचित्त (जीवनयुक्त) वस्तुओं का उपभोग करते हैं, दो-दो, तीन-तीन बार भोजन करते हैं, निमित्त बतलाते हैं, आहार के लिए खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते । ..... स्वयं परिभ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना और प्रतिक्रमण करवाते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, श्रृंगार करते और इत्र - फूल का उपयोग करते हैं। अपने ही चारी मृतक गुरुओं की दाह - भूमि पर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियाँ उनके गुणों के गीत गाती हैं। सारी रात शयन, क्रयविक्रय और प्रवचन के बहाने विकथायें किया करते हैं। जिनप्रतिमाओं का क्रय-1 -विक्रय उच्चाटन करते हैं और वैद्यक, मंत्र-तंत्र, ताबीज और जादूटोना आदि में कुशल होते हैं ।
सुविहित साधुओं के पास जाते हुए श्रावकों को रोकते हैं, अभिशाप आदि का भय दिखाते है, परस्पर विरोध रखते हैं और शिष्यों के लिए एक दूसरे से लड़ पड़ते हैं । "४
आचार्य हरिभद्रसूरि जी के उक्त अभिवचनों से ज्ञात होता है कि उस समय (८ वीं शताब्दी में ) चैत्यवास एवं शिथिलाचार विस्तृत प्रमाण में था । स्वयं हरिभद्रसूरि जी जो लोग उन चरित्रवालों को भी मुनि मानते थे, उनको लक्ष्य कर कहते हैं कि 'कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि, "यह भी तीर्थंकरो का वेष है, इसे नमस्कार करना चाहिए" अहो ! धिक्कार हो इन्हें । मैं अपने सिर के शूल की पुकार किसके आगे जा कर करूँ ? "५ तत्कालीन श्वेताम्बर समुदाय के यति लोग जिन-मंदिरों में रहते थे, जिनको प्रायः चैत्यगृह कहते थे । जो लोग जैन धर्म से परिचित नहीं हैं उनकी समझ में यह नहीं आ सकता कि जिनमंदिर में रहने वाले मुनियों को घृणा की दृष्टि से क्यों देखा गया है।
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सम्बोध प्रकरण- हरिभद्रसूरिजी
'बाला वयंति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि ।
नमणिजो घद्धो अहो, सिरशूल कस्स पुक्करिमो ॥ (सम्बोध प्रकरण पद्य - ७६ )
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