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________________ युगप्रधान आ. • जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण (वि. सं. ५१०) से लेकर विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी तक यह परम्परा क्रमशः व्यापक रूप से फैली । २ उपाध्याय धर्मसागर जी अपनी पट्टावली में लिखते हैं कि “वीरात् ८८२ (वी. निर्वाण संवत् ८८२) में चैत्यवास शुरू हुआ। ' आचार्य श्री जिनवल्लभ सूरि जी कृत "संघपट्टक" की भूमिका में वीर निर्वाण ८५० का उल्लेख है । इस तरह विद्वानों के मतों का निष्कर्ष निकालें तो मालूम होता है कि चैत्यवास विक्रमीय पांचवीं शताब्दी के आसपास पनप चुका था। आचार्य हरिभद्रसूरि जी (आठवीं शताब्दी) के समय में चैत्यवास का प्रभाव इतना बढ़ चुका था कि उन्होने चैत्यवास एवं चैत्यवासिओं की कटु आलोचना की है। २० चैत्यवासी संप्रदाय का मुनिलिंग से सम्बन्ध था । किन्तु मुनि जीवन की निर्मलताएं उन्हों ने नष्ट कर दी थी । चैत्यवासियों का प्रभाव इतना फैल गया था कि कठोर चर्या का पालन करने वाले श्रमण इसके सामने कुछ बोल भी नहीं सकते थे क्योंकि राज्य के अधिकारियों पर इनका प्रभुत्व था । अतः शुद्ध आचारशील श्रमण नगरों में प्रवेश नहीं कर पाते थे और न ही श्रमण चैत्यवासियों के विरुद्ध बोल पाते थे 1 जैन मुनि - जीवन में महाव्रतों का निरतिचार रूप से पालन करना होता है, किन्तु चैत्यवासी यति लोग साध्वाचार के विरुद्ध आचरण करते थे। मुनि का धर्म है कि देश में भ्रमण कर के, घर-घर में सद्विचारों का उपदेश पहुँचाये। सदुपदेश देना ही मुनि का कर्तव्य है । पर चैत्यवासी ऐसा नहीं करते। वे विहार चर्या न कर के स्थानपति और मठाधीश हो गये थे । चैत्यवासी एक ही स्थान पर रहते थे। श्रमण जीवन की आदर्श भूमिका से वे च्यूत हो गये थे। इनकी आचार संहिता में इतना शैथिल्य आ गया था कि इसका अपना मूल व्यक्तित्व ही समाप्त हो गया था। उनकी दिनचर्या विलास-प्रधान हो गई थी। वे छत्र, चामर, अंगरक्षक आदि राजकीय सन्मानजनक अलंकरण भी धारण करते थे। आचार्य हरिभद्रसूरि जी (आठवीं शताब्दी) के समय में चैत्यवासियों का प्रभाव मध्याह्न के सूर्य की तरह तेज था । उन्हों नें “सम्बोधप्रकरण” में चैत्यवासियों का आंखो देखा हाल प्रस्तुत किया है: २. ३. खरतगगच्छ का आदिकालीन इतिहास, महो. चन्द्रप्रभसागरजी म. सा, पृ.५३ जैन साहित्य और इतिहास, नाथुराम प्रेमी, पृ. ४८० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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