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• अनुसार
युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान शैवाचार्यने "त्रिपुरुषप्रासाद" नामक शिवमंदिर के पास ही "ब्रीहि हट्टी" में उपाश्रय निर्माण हेतु स्वीकृति प्रदान की और एक उपाश्रय का निर्माण करवाया । ३६ महो. विनयसागरजी के मतानुसार सम्भवतः इसी समय से वसतियों अर्थात् उपाश्रयों की परम्परा शरू हो गई।
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जिनेश्वरसूरि खरतरगच्छ के प्रथम आचार्य हुए। इस तरह तत्कालीन विक्रमीय ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ से जिनेश्वर सूरि के जीवन कार्य ने इस युग परिवर्तन को सुनिश्चित मूर्त स्वरूप दिया । उनके अनुगामी समुदाय को " खरतरगच्छ ” ऐसा नूतन नाम प्राप्त हुआ । तदन्तर यह समुदाय इसी नाम से अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ। जो आज तक अविच्छिन रूप से विद्यमान है ।
आचार्य जिनविजयजी के अभिमत से:
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प्रभावकचरित के
" इस खरतर गच्छ में अनेक बड़े-बड़े प्रभावशाली आचार्य, बड़े-बड़े विद्यानिधि उपाध्याय, प्रतिभाशाली पण्डित मुनि, कर्मठ यतिजन हुए। इन विद्वानों की छोटी-बड़ी हज़ारों ग्रंथ-कृतियाँ जैन- भण्डारों में उपलब्ध हो रही हैं । खरतरगच्छीय विद्वानों की की हुई यह साहित्योपासना न केवल जैनधर्म की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, अपितु समुचे भारतीय साहित्य और संस्कृति के गौरव की दृष्टि से भी उतनी ही महत्ता रखती है। १३८
" खरतरगच्छ ” के गौरव को प्रदर्शित करने वाली पट्टावलियाँ, युगप्रधानाचार्य गुर्वावलि, खरतरगच्छ का इतिहास, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, खातर गच्छ का आदिकालीन इतिहास, औसवाल- वंश आदि के अध्ययन से विस्तृत गच्छ गौरव की यशोगाथा का परिचय प्राप्त हो सकता है।
सचमुच में जिनेश्वरसूरि की महान् सेवाओं के साथ-साथ उनकी शिष्य सन्तति भी जैन धर्म के लिए अद्भुत महान् कार्य किये हैं ।
आचार्य जिनेश्वरसूरिजी की वाक्पटुता के साथ-साथ साहित्य सर्जन में भी उनका काफी योगदान रहा है । साहित्यसर्जन के क्षेत्र में आप अप्रतिम प्रभाव वाले रहे हैं। जिसका अवलोकन अग्रिम वर्णन के आधार पर किया जा सकता है।
३६.
३७.
३८.
प्रभावक चरित - अभयदेव-चरित-पद्य ८६ पृ. १६३. वल्लभ-भारती - महो. विनयसागरजी - पृ. २४.
कथा-कोप प्रकरण- जिनविजयजी - पृ. ५.
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