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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान सोलंकी शासक शैव धर्म के अनुयायी होने पर भी जैन धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धा, सद्भाव रखते थे। सिद्धराज जयसिंह ने सभी धर्मो की समान आराधना की। उसके राज्य में वैदिक, सनातन धर्म के साथ जैन संप्रदाय की भी बहुत अभिवृद्धि हुई । जयसिंह जैन धर्म के प्रति श्रद्धा रखता था, वह जैनसंघो का सन्मान करता था। ८७
राज्यप्राप्ति से पहले ही हेमचन्द्राचार्य ने कुमारपाल को संकटो से बचाया। इन्हीं कारण से हेमचन्द्राचार्य उसके उपकारी गुरु थे।८ उसने उनसे विधिपूर्वक जैन धर्म ग्रहण किया था। ९ कुमारपाल ने अपने राज्य में धर्म के नाम पर यज्ञ में की जाने वाली हिंसा को बन्द कराया, सत्य धर्म का प्रचार किया, राज्य में मदिरापान, धुत आदि पर प्रतिबन्ध लगा दिये। ९०
कुमारपाल को अजितनाथ भगवान पर विशेष श्रद्धा थी, वह अपनी विजय का कारण उनकी उपासना मानता था। ९१
___उसने जैन धर्म की उन्नति के लिए भारी प्रयत्न किये, जिसके कारण गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, राजपूताना और मालवा में जैन धर्म का बहुत प्रसार हुआ।कुमारपाल ने १२ या १४ वर्ष तक अहिंसा के सिद्धान्तों का प्रचार किया। ९२
इस लिए कुमारपाल को परर्माहत, परमश्रावक, जिनशासन प्रभावक आदि पदवियों से विभूषित किया गया है । ९३
चौलुक्यों के काल में जैन धर्म को उत्तम संरक्षण मात्र ही मिला हो यह बात नहीं, किन्तु उत्तम पोषण मिला था।
मालवा में परमार शासकों ने भी जैन धर्म की उन्नति में योगदान अर्पित किया था । धारा के परमार शासक नरवर्मन शैव था, परन्तु जैन धर्म के प्रति आचार्य जिनवल्लभसूरि जी के कारण श्रद्धालु था। ९४
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जैन इतिहास की झलक, पृ.११२ गुजरातनो प्राचीन इतिहास, पृ.२४९ वही, पृ.२०४. आचार्य हेमचन्द्राचार्य-ईश्वरलाल जैन, पृ.२२-२३ वही, पृ.२५ गुजरातनो मध्यकालीन राजपूत इतिहास, भाग १-२, पृ.३६३ गुजरातनो प्राचिन इतिहास, पृ.२०५ जैन संस्कृति और राजस्थान, पृ.१३४
९३. २४.
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