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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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गुर्जरों और प्रतिहारों के मंदिर भवन नष्ट हो गये, लेकिन मूर्तियाँ बहुत संख्या में मिलती हैं। सुंदर अलंकरण और सुडोल रचना इन मूर्तियों की विशेषता है । आचार्य श्री के समय समग्र भारत में योग्य शासकों के दृढ शासन में कला को अभूतपूर्व संरक्षण मिला । पश्चिम भारत उस समय शिल्प, स्थापत्य, मूर्ति और मन्दिरनिर्माण से और अपनी हस्तप्रतों के लघुचित्रों की विशिष्ट शैली से भारतीय कला में अपना विशेष स्थान रखता है ।
धार्मिक परिस्थिति :
आचार्य श्री अवतीर्ण हुए उस समय समाज की प्रमुख प्रवृत्ति विभिन्निकरण की थी । जाति भेद इसी प्रवृत्ति की देन है । धार्मिक क्षेत्र में इसका व्यापक प्रभाव पड़ा
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था ।
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गुजरात जैन धर्म के लिये सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रिय आश्रय स्थान बना है । इतिहास युग में जैन धर्म ने अपना जो कुछ उत्कर्ष सिद्ध किया है, वह गुजरात में ही सिद्ध किया है। गुजरात की भूमि एक तरह से जैन धर्म की दृष्टि से दत्तक पुत्र की माता के समान है । ८५ और मालवा में भी आचार्य श्री के समय जैन धर्म का प्राबल्य था ।
जैन धर्म के निष्परिग्रही, निर्लोभ, निर्भय और तपस्वी उपदेशकों के दान, शील, तप और भावना पोषक सतत् प्रवचनों ने गुजरात के उन हजारों प्रजाजनों में जैन धर्म के प्रति विशिष्ट श्रद्धा उत्पन्न की थी। गुजरात आज भी जैन धर्म का केन्द्रभूत स्थान है । इसका कारण मध्ययुग के इन प्रभावक आचार्यो का उत्कृष्ट प्रभाव था । परमार, चौहान, चावड़ा आदि शासक जैनाचार्यो के सम्पर्क मे आये, उनके ज्ञान और चारित्र के प्रभाव से आकृष्ट हुए, और उनके उपदेशानुसार जैन बनने लगे ।
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जैन मतावलम्बी अनेक गृहस्थ भी शासन के उच्च पदों पर कार्य कर रहे थे, उनके कारण भी जैनाचार्यो का प्रभाव बढा । बारहवीं सदी में सम्पूर्ण भारत में अहिंसा के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करने में सोलंकी राजाओं का सक्रिय सहयोग रहा। गुजरात
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भारतीय संस्कृति का इतिहास - श्रीस्कन्द कुमार एम. ए., पृ. १३४
गुजरात का जैन धर्म, पृ. ३०
वही, पृ. ३२
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