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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
सोलंकी युग में सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल ने विविध भाषाओं में साहित्यसर्जन करवाया, साहित्य की विपुल समृद्धि हुई । कुमारपाल ने २१ बड़े ज्ञान भण्डार निर्मित कराये, लाखों रूपये खर्च कर के जैन शास्त्रों का उद्धार करवाया।
आचार्य हेमचन्द्राचार्य की प्रतिभा हेम सी निर्मल थी, वे ज्ञान के विशाल कोष थे। उन्हों ने प्रभूत प्रमाण में मूल्यवान् ग्रंथो की रचना की यही कारण है कि उनकी प्रसिद्धि कलिकालसर्वज्ञ के नाम से हुई। उनके ग्रंथरत्नों को पढकर पाश्चात्य विद्वानों ने उनको ज्ञान का समुद्र (Ocean of Knowledge) कह कर संबोधित किया। ५८ हेमचन्द्र जी यथार्थ में अपने युग के विलक्षण विद्वान थे।
जैन संस्कृति को जनजन में व्याप्त करने की दृष्टि से उन्हों ने विविध भाषाओं में साहित्य की रचना की थी। व्याकरण, काव्य, छन्द, अलंकार, न्याय, नीति, ज्योतिष, इतिहास आदि उस समय के प्रचलित विषयों में शायद ही कोई विषय रहा हो जिस पर हेमचन्द्राचार्य की लेखनी न चली हो। उनका सर्जनकार्य साहित्यिक इतिहास की अनुपम देन है। अत: उस युग में हेमचन्द्राचार्य अग्रणी रहे थे।
सिद्धराज जयसिंह के समय में आचार्य जिनवल्लभसूरि जी की ग्रंथकर्ता के रूप में प्रतिष्ठा हुई थी। गुजरात के पास अपनी संतानो के लिए ज्ञान-विज्ञान के सभी विषयों की कृतियाँ विद्यमान हैं। इस लिए गुजरात साहित्य की दृष्टि से स्वतंत्र राष्ट्र बना
आचार्य श्री के समय राजस्थान, मालवा आदि स्थानों में साहित्य की उन्नति हुई है। उस युग के मालवा का परमार राजा भोज, काश्मीर का राजा क्षेमेन्द्र, राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम ये साहित्यप्रेमी थे। कितने तो स्वयं कवि और साहित्यकार भी थे। ६०
परमार शासक विद्याप्रेमी तथा सरस्वती के महान् उपासक थे, इस लिए साहित्य की विशेष प्रगति हुई। ६१
५८.
जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास-मोहनलाल दलीचंद देसाई, पृ.२६७ हेमचन्द्राचार्य-ईश्वरलाल जैन, पृ.३९ जैन इतिहास नी झलक-मुनि जिन विजयजी. पृ.३८ मध्ययुगीन भारतखण्ड-१ - डॉ. छोटुभाई र. नायक, पृ.२५३ राजपूत राजवंश १.२१.२
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