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तेहिं समं न विरोहं करोमि, न च धरणगादिकलहं पि । सीयंतेसु न तेसिं सइ - विरिए भोयणं काहं ॥ २५॥
अर्थात्- 'उन समानधर्मी बन्धुओं के साथ विरोध न करूँगा एवं धरणाडिग्री जब्ती आदि कलह से भी अपने को मुक्त रखूंगा । दुःखी समानधर्मी का कष्ट शक्ति रहते हुए मिटाकर ही भोजन करूँगा ।'
यही कारण है कि भारत के इतिहास में सामाजिक जागरण व नैतिक उत्थान में जैनसंतों का योगदान स्वर्णाक्षरों में अंकित हुआ ।
साहित्य के क्षेत्र में :
ग्यारहवीं से तेरहवीं शताब्दी के काल में साहित्य सर्जन भी विपुल मात्रा में हुआ था । उस समय में संस्कृत, प्राकृत, भाषाओं में अनेक नये ग्रंथो का निर्माण हुआ। तथा विद्वानों ने साहित्यिक प्रतिभा का परिचय दिया ।
आचार्य श्री के समय गुजरात में सोलंकी राजा शासन करते थे, उस समय में वैदिक और जैन साहित्य का सर्वतामुखी विकास हुआ। विद्या काव्य और शिक्षण की इस काल में बहुत कृतियाँ लिखी गयी थीं ।
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सोलंकी शासक साहित्यरसिक और विद्वानों के आश्रयदाता थे। अतः सोलंकी युग संस्कृत साहित्य का भी स्वर्णयुग था । सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल राजा के समय विद्वान् तथा साहित्यकार उच्च स्थान ग्रहण करते थे ।
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प्रारम्भ से ले कर आज तक जैनों ने गुजरात में रह कर जिस साहित्य की रचना की उसकी तुलना के लिए दूसरा कोई देश नही है । ५५
प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती ऐसी विविध भाषाओं के हजारों ग्रंथो से गुजरात के ज्ञान भंडार परिपूर्ण हैं । प्राकृत भाषा हमारे देश की समस्त आर्य भाषाओं में भी मध्यवर्ती भाषा है। उसका विपुल भण्डार एक मात्र गुजरात की संपत्ति
है ।
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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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गुजरात नो प्राचीन इतिहास, पू. २५२ मध्ययुगीन भारत खण्ड - १, पृ.७८ गुजरात नो जैन धर्म-मुनि जिन विजय जी,
वही, पृ.१७.
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पृ.१७
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