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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
आचार्य हेमचन्द्राचार्य से कुमारपाल राजा प्रभावित हुए । कुमारपालने ई.सन् ११६० (वि.सं. १२१६) में जैन धर्म अंगीकार किया। तथा सप्त व्यसन (मद्य, मांस, चोरी, शिकार, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन और जुआ) का त्याग किया। उसने सम्पूर्ण राज्य में अमारी घोषणा करवा दी ( अर्थात् अहिंसा का प्रचार-प्रसार किया ), पशुबलि, हिंसात्मक यज्ञ, शिकार खेलना आदि बंद करवाये ।
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अतः कुमारपाल राजा के राज्य में सामाजिक जीवन में शांति का वातावरण था। उसने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में सक्रिय योगदान दिया। कुमारपाल जैन धर्म के प्रति पूर्ण श्रद्धावान बना । सन् १२६४ (वि.सं. १२२०) कुमारपाल राजा को हेमचन्द्राचार्य ने परम आर्हत, परम श्रावक, जिनशासन प्रभावक पदवियों से अलंकृत किया था । ५० कुमारपाल के समय से राज्य में जीवहिंसा बहुत कम हो गई। आज भी गुजरात सम्पूर्ण भारत की अपेक्षा प्राणिहिंसा कम होती है । मद्य का उपयोग भी बहुत होता है। इस लिए गुजरात की प्रजा शांतिप्रिय, सौम्य स्वभाववाली, विशिष्टतावाली है। ये सब गुण पूर्वजों के संस्कारों से सतत् चले आ रहे हैं।
कम
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राजपूत राजा अधिकांश उच्छृंखल होते थे ।
सामान्यतः राजपूत राजा शिकार करते थे, मांस भी खाते थे, वे बड़ी शान शौकत से रहते थे । मदिरा का सेवन होता था, अफीम खाने का व्यसन बढ गया था । धूम्रपान का प्रचलन नहीं हुआ था ।'
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प्रजा मन्त्र, तन्त्र, भूत, प्रेत आदि में विश्वास रखती थी।
आचार्य जिनदत्तसूरि जी ने ऐसे समाज के अनिष्टों को दूर करने के लिए भगीरथ प्रयास किया। उन्हों ने विराट समुदाय को न केवल शान्तिमार्ग का उपासक ही बनाया अपितु उनके लिए समुचित सामाजिक व्यवस्था का भी निर्देश किया । चैत्यवंदनकुलक में लिखा है कि :
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५०.
५१.
५२.
गुजरात नो प्राचीन इतिहास, पृ. २०४-२०५
वही, पृ. २०५
जैन इतिहास नी झलक-मुनि जिन विजयजी,
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पृ.४२-४३.
गुजरात नो राजकीय अने सांस्कृतिक इतिहास, रसीकलाल छोटालाल परीख, पृ. २३३.
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