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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान पुत्र को युद्ध में जा कर शत्रुओं को नष्ट करने या अपने प्राणों को वहीं उत्सर्ग करने का आदेश देती रही। उस समय कर्तव्य के लिए प्राणत्याग भी एक धर्म माना जाता था। ४४ समाज में स्त्रियों की प्रतिष्ठा यथावत् थी। उस समय अनुलोम-प्रतिलोम विवाह का प्रचलन था।
। अधिकतर विवाह माता-पिता की सम्मति से होते थे। राजपतों में स्वयंवर की प्रथा भी प्रचलित थी। समाज में वर्ण-ज्ञाति अनुसार विवाह होते थे। समाज में विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था, वैधव्य जीवन जीना पाप माना जाता था। अपवाद रूप कभी-कभी पुनर्विवाह होता था। जैसे कि- वस्तुपाल, तेजपालकी माता कुमारदेवीने अश्वराज के साथ पुनर्विवाह किया था। ४५
उस समय में बहुपत्नीत्व की प्रथा थी। राजाओं को तो अनेक पत्नियाँ होती थीं। चेदी राजा गांगेयदेव के १०० रानियाँ थीं, तथा गोविन्दचन्द्र के पाँच रानियाँ थीं। ४६
समाज में उच्च वर्णो में स्त्रियों को शिक्षा दी जाती थी। बारहवी सदी में प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने अपनी पुत्री लीलावती को गणित का ज्ञान देने के लिए पुस्तक लिखी थी। ४७
चेदी राजाओं के एक लेख में गांगेय की दो पत्नियाँ सती बनी थीं, ऐसा वर्णन आता है।४८
लोग खेती, उद्योग, व्यापार से आजीविका चलाते थे।
बारहवीं सदी में जैन संतों का प्रभाव जनजीवन में अधिक था, संतो ने जनता के उत्थान के लिए आचार-विचार पर बहुत जोर दिया था।
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राजपूत राजवंश, पृ.३७९-३८३
गुजरात नो प्राचीन इतिहास, पृ.२९३-२९८ __ भारत नो सांस्कृतिक इतिहास,डॉ. प्रवीण सी. परीख, पृ.३२
मध्ययुगीन भारत खण्ड-१, पृ.२५२ वही, पृ.२५३
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