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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
उपर्युक्त ऐतिहासिक तथ्यों से प्रगट होता है कि उस समय पश्चिम भारत में भीमदेव, कर्ण, सिद्धराज जयसिंह, कुमारपाल, भोज, नरवर्मा, अर्णोराज, पृथ्वीराज चौहाण आदि प्रतापी, शूरवीर राजा हुए। इन शासकों के मंत्री भी बुद्धिशाली और राजनीतिज्ञ थे । उन में कई जैन मंत्री भी थे।
इस तरह राजनैतिक जीवन में शान्ति का वातावरण स्थिर रहने के कारण इस समय में धर्म एवं संस्कृति को पनपने का अवसर मिला ।
हमारे चरित्रनायक का उसी समय में अवतरण हुआ। विक्रम की बारहवीं शताब्दी का समय जैन धर्म की प्रतिष्ठा का स्वर्णिम समय था । सम्पूर्ण पश्चिम भारतवर्ष में उन्नति की लहर दौड़ रही थी । सामाजिक परिस्थिति :
आचार्य जिनदत्तसूरि जी की जन्मभूमि तथा कर्मभूमि गुजरात, मालवा, राजस्थान थी
मध्ययुग में चारों वर्ण की व्यवस्था थी, प्रत्येक वर्ण अनेक शाखाओं में विभक्त
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राजकुलों में सोलंकी (चौलुक्य), परमार, चौहान ( चाहमान), गुहिल, मेहर वगेरे कुलभेद थे । वणिकों में प्राग्वाट (पोरवाड़) श्रीमाली जातियाँ थीं । ४१ आचार्य श्री के समय क्षत्रियों का स्थान सर्वश्रेष्ठ था । क्षत्रियों को देश के लिए रणभूमि में हँसते हुए प्राण दे देना बाएँ हाथ का खेल था। वे लोग जैसे वीर थे, वैसे ही स्वामिभक्त और अपनी बात के धनी भी होते थे । ४२
प्रतिहार, परमार, चन्देल, चौहान, चालुक्य और गहड़वाल ऐसे ही क्षत्रिय थे, जिन्हों ने यथाशक्ति राष्ट्ररक्षा की । ४३ क्षत्राणी - वीरांगनाएं भी राष्ट्ररक्षण को अपना कर्म मानकर रणभूमि में मृत्यु का आलिंगन करती रहीं । क्षत्राणी माँ भी अपने पराजित
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मध्ययुगीन भारत, खण्ड- १, डा. छोटुभाई र. नायक. पु.२५१
गुजरात नो प्राचीन इतिहास, पृ.२९६
भारतीय संस्कृति का इतिहास. श्री स्कन्दकुमार एम. ए., पृ. १२७ राजपूत राजवंश, पृ. ३७८
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