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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
९. काष्ठ और कांटों से बनी हुई छठ्ठी वाड़ (अज्ञानी) बालजीवोंरूपी पशुओं से बचाती हैं, यह वाड़ दुर्वचनोंरूपी अग्नि से जलती हुई उसको भी जलाती है ।
१०.
कंकर वेरी ..... झंडि से बनी हुई यह सातवी वाड़ जघन्य है, कंटकयुक्त होने कारण आत्मगुणरूपी शरीर में छेद करनेवाली है, स्वयं जलती है और जलाती हैं। ११. सात वाड़ो का उपनय =
तीर्थंकर, युगप्रधान आचार्य ये दो सर्वश्रेष्ठ वाड़ समान हैं। जो पर्वत की भांति प्रलयकाल में भी अपने स्थान से चलायमान नहीं होते हैं ।
१२.
अन्य भी जो धर्माचार्य उनकी आज्ञा में रहते हैं, वे गड़े हुए किले की तरह है । ....(?)
१३. जिसकी मति वादरूपी वह्निसे सग्गई ४ ( ? )... अपरिपक्व है, वे वाचनाचार्य कपित्थ वृक्ष के समान हैं ।
१४.
जो रत्नाधिक प्रवर्तक स्थविर है, वह पेड़की पक्की हुई शाखा के समान हैं, वे कभी भारी अज्ञानी जीवों से छेदे जाते हैं, वे प्रवचन का रक्षण नहीं कर सकते। १५-१६. सामान्य साधु-साध्वी दुर्वचनों रूपी अग्नि से गुरूरूपी रक्षक के बिना जलाये जाते हैं। वे लकड़ी की वाड़ समान है। जो नामधारी साधु और श्रावक कंटक वाड़ समान है, उसकी एक शाखा के अंदर रहे हुए दूसरी शाखा छूट जाती है। (छुटइ = अलग हो जाती है )
१७.
यथा इस कंटक वाड़ी के बिना वृक्ष सुख (शुभ) फल प्राप्त नहीं करते हैं, इसी तरह शुभ फल के जनक सुगुरु भी निवृत्ति को नहीं पाते हैं। (इसी तरह गुरु को भी संरक्षक रूपी वाड़ होनी चाहिये ।)
१८.
प्रसन्न चित्त, अप्रमत्त, सुविहित, शांत और शिष्य परम्परा से युक्त सद्गुरु रूपी वृक्ष, निवृत्तिदायक उपदेश स्वरूप श्रेष्ठ फल देनेवाले होते हैं ।
१९.
ऐसे सद्गुरु रूपी वृक्ष किसी से भी खंडित नहीं होते हैं, काटे नहीं जाते है, छेदे नहीं जाते हैं, नष्ट नहीं किये जाते हैं, क्षय नहीं किये जाते हैं । इसलिये लोग संताप दूर करने के लिये उसकी छाया का सेवन करते हैं, अर्थात् सद्गुरु की निश्रा प्राप्त करते हैं। २०. इसलिये मूल्य देकर भी कंटको की गहरी वाड़ करनी चाहिये और निजधन (संयमधन ) की रक्षा के लिये प्रयत्नपूर्वक उस वाड़ी का रक्षण करना चाहिए ।
४.
साई = सद्गति, स्वगति ।
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