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________________ २४४ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान वाडिकुलक (भाषान्तर) १. भवरूपी काराग्रह में केदी बने हुए, लोभरूपी ' लोह श्रृंखला में बंधे हुए, भव्यजनों को जो मुक्त करके परम पद में स्थापित करते हैं वे वीरजिन की जय हो। २. चतुर्विध संघ और गुरुरूपी सात प्रकार की वाड़ को देखिये, जो जिनप्रवचनरूपी उद्यान की रक्षा करती हैं। उद्यान में बड़े बड़े वृक्ष लगे हुए है, और जिस प्रवचन से भयों का नाश होता है। ३. प्रवचन को द्वादशांगी भी कहते हैं, जहाँ आये हुए सम्यक् दृष्टिवंत भव्य जीव निवृत्तिनगर में प्रचरण करते हैं । (निवृत्तिनगर की ओर चल पड़ते हैं।) ४. जो प्रवचन (अन्य मतोरूपी)मदोन्मत्त हाथियों का दंत भंग करता है, वह किला समान प्रवचन कैसे चलायमान होगा ? जो सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के लिये पर्वत समान हैं। ५. जिसकी निंव शिलाओं से रखी गयी हैं, और इसके उपर पक्की हई ईटों से किला बनाया गया है, उसका भी भंग कभी हो सकता है, इसलिये दूसरी वाड़ उसकी रक्षा करती है। ६. पक्की हुई ईटों से बना हुआ किला खाई के बिना भंग होना संभव है, इस लिये खाई तीसरी वाड़ है, जो परतीर्थी रूपी हाथियों से उपद्रवित हो सकती है, इसलिये ये जघन्य वाड़ हैं। ७. चोथी वाड़ कच्ची ईटों से बना हुआ किला है, यह वाड़ जडत्व रूपी पानी से भेदित हो सकती है, इसलिये ये वाड़ मध्यम-उत्तमा हैं। ८. चिकने कादव से बनी हुई वह प्रवचन को (वंदलिया) नाला भी उसका रक्षण करती है, यह जघन्य वाड़ जड़ गम्य और जलगम्य होने के कारण जघन्य मध्यम वालों की श्रेणी में उत्तम है। लोह = १. लोहा, २. लोभ जड़ = अज्ञानी और पानी।डलयो एक्यम् इस सिद्धान्त से संस्कृत में लका का डकार हुआ है। जल = जड़ वंदलिया = नाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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