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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान ४. वाडिकुलयं
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भवकारागारगयं भव्वजणं लोहसंकलावडियं जो मोयाविए ठाइ परमपए जयइ सो वीरो ॥ १ ॥ वाडीउ सत्त जाणसु जाओ रक्खंति पवयणारामं चउरंग संघ-गुरु- साहिसंगयं सुठु-नट्ठ-: - भयं ॥ २ ॥ भन्नइ दुवालसंगी वि पयरणं सुदिट्ठीहिं कीरइ जत्थ गएहिं निव्वुइ-नयरंमि भव्वेहिं ॥ ३ ॥ जो कुइ दंत-भंगं समयाणमिहऽन्नतित्थि- हत्थीणं सव्वुत्तमो य सेलो सालसमो चलइ सो वि कहं ॥ ४ ॥ मूले सिलाहिं बद्धो तदुवरि पक्किट्ठ-निम्मिओ सालो रक्खंती सा दुइया कयाइ तब्भंग-संभवओ ।। ५ ।। पक्किट्ठाहिं विहिओ पायारो खाइयं विणा तइया एसुत्तमा जहन्ना परतित्थि - गयाण जं गम्मा ॥ ६॥ कच्चिट्टाहिं विहिओ सालो तं चेव रक्खइ चउत्थी एसा वि होइ जं मज्झिमोत्तमा भिज्जइ जडेहिं ॥ ७ ॥ चिक्कण- चिक्खलकया खंव (? वंद) लिया सा विरक्खाइ तयं पि हवइ हु जहन्न - मज्झमि उत्तमा जमिह जडगम्मा ॥ ८ ॥ बहु कट्ठेहिं विहिया रक्खइ छट्ठी वि सिसुपसूहिंतो दुव्वयण - वण्हिणा सा डज्झती तंपि निद्दहइ ।। ९ । किंक्किरि वेरी झंखरय साहिया सत्तमी जहन्नेसा सगुणतणुऽछेकरी सकंटया डहइ डज्झंती ॥ १० ॥ सव्वुत्तम-वाडि - समा तित्थयरा सूरिणो जुगप्पवरा पलय- समए वि न चलंति ते वि सेल व्व सट्ठाणा ॥ ११ ॥
यहाँ साधुओं का संदर्भ हैं इसलिये सुरीवरसम = (अर्थात् श्रेष्ठ आचार्य समान ) पद होना चाहिये ।
यहाँ " जिनदत्त" शब्द से ग्रंथाकार का नाम सुचित किया गया हैं।
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