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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
२०. मेरु पर्वत पर इन्द्रों जिनजन्म स्नात्र (जन्मोत्सव ) किया और आरती, मंगल
दीपक उतारा और नृत्य किया ।
२१.
जनप्रतिमा के आगे एक आरती की वह निर्माल्य नहीं है। जो वस्त्र पहनकर आरती उतारी जाती है, वह वस्त्र भी निर्माल्य हो जाता है।
२२. आरती के उपर पानी घुमाया जाता है तथा आरती की पूजा की जाती है। जब आरती उतारते है तब पुष्पक्षेप किया जाता है ।
२३. जब आरती उतारते है तब उसको रोककर गीत, उपगीत, नृत्य, नाटक किया जाता है ।
२४. जिनेश्वर के आगे फल, अक्षत वगैरह जो पूजा के लिए रखे जाते हैं उसको भी निर्माल्य नहीं करते, दुबारा नहीं दे सकते ।
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२५. विधि जिनभवन में लिंगि द्रव्य (साधु का द्रव्य) नहीं देना चाहिये । और सम्यक् दृष्टिश्रावक को जिनभवन में शासनदेव की पूजा नहीं करनी चाहिए ।
२६. प्रव्रज्या ग्रहण, अनुष्ठान आदि में नंदी की रचना रात्रि में नहीं की जा सकती है । नेमि विवाह, अखाड़ा का वर्णन, रथचलन, राजीमतीशोक (जिनभवन में वर्णित नहीं किया जाता हैं ।)
२७. यहाँ पर गीतार्थ आचार्यों ने सिद्धान्तसूत्रों के आधार पर जो कुछ भी आचरण किया उसको प्रमाण नहीं करते और समय के प्रभाव को प्रगट करते हैं ।
२८.
गृहस्थ लोग मुहपत्ती बिना सिर्फ वस्त्र के आँचल से कृतिकर्म करते हैं । और कंधे पर पारणी (साधु लोग उपाश्रय में छोटी चादर ओढते है उसे पागरणी कहते है) रखकर साधु घूमते हैं।
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२९.
कुगुरु के पारतन्त्र्यवाले, सूत्रार्थ के विषय को नहीं जाननेवाले, जो साधु विधि के प्रतिकूल करते हैं, उसको उत्सूत्र जानना ।
दत्त आज्ञा (अथवा जिन द्वारा दी गइ आज्ञा ) मानते हैं वे शास्त्रों में
३०.
जिसे उत्सूत्र कहा गया है ऐसा आचरण नहीं करते हैं ।
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