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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान कामाग्नि प्रज्वलित नहीं हुई। १७. और विश्वरूपी ग्रह में अपूर्व सूर्य से अपनी प्रभा को प्रकाशित करते हुए जिन्होंने मोह रूपी महा तिमिर के नाश से प्रभा फैलायी (विस्तृत की)ऐसे, १८. अन्तिम चर्तुदशपूर्वी, चारित्र और ज्ञानरूपी लक्ष्मी के निवास स्थान गजगामी स्थूलिभद्रमुनि को वंदन करता हूँ। १९. जिनकल्प के व्यतीत होने पर भी आर्य महागिरी ने अपने आत्मबल को छिपाये बिना जिनकल्प की तुलना की। २०. उनके लघुबन्धु को सुखार्थी लोगों ने नमस्कार किया है और संसार को छोड़कर संयम स्वीकार किया है ऐसे सुहस्तीसूरि का हम स्मरण करते हैं। २१. गंभीरता की अपेक्षा से समुद्र जैसे गंभीर आर्य समुद्र को वंदन करता हूँ। और आर्य मंगु तथा धर्म में रत आर्य सुधर्म को वंदन करता हूँ। २२. मन, वचन और काया के अशुभ योगों का गोपन करनेवाले, जिन्होंने छ: महिने की उम्र में भावतः प्रवज्या ग्रहण की, २३. आप धनगिरि और नंदा के पुत्र थे, आपको विद्याधर और इन्द्र प्रणाम करते थे, प्रथम उत्पत्ति के स्थान की भांति वैराग्यलक्ष्मी ने आपको वरण किया था, २४. अन्य साधुओ को ज्ञानदान देने के कारण (वज्रस्वामी) उनमें छोटे होने पर भी आपको आर्य सिंहगिरी गुरु ने वाचनाचार्य बनाये, २५. सर्वथा उपशम में रसिक आपने महापरिज्ञा अध्ययन वाले पूर्व से पदानुसारी
और आकाशगामिनी विद्या उद्धृत की। २६-२८. इन्द्रधनुष जैसे विद्युत की तरह भौंहों से नेत्रकटाक्ष करनेवाली, अपने मुँह से कामाग्नि को पवन देनेवाली, प्रार्थना के वचनों की घटनावाली, तथा पुष्ट अंग की प्रतिष्ठा (सुन्दरता)वाली, श्रेष्ठ चेष्टाओंवाली, गुणों को सुनकर मिलने के लिए उत्कंठित मनवाली, अपने पिता द्वारा दिया गया धन, सुवर्ण, रत्नों के समूह अर्थात धनराशी वाली कन्या के साथ, युवावस्था को प्राप्त व्रजस्वामी अल्प भी मोहिन न हुए। २९. माहेश्वरी नगरी के पास हुताशन नामके वन में से पुष्पों को लाकर जिन्होने तीनो वर्ण के लोगों का और बौद्धों के मान को म्लान करके संघ की उन्नती की ऐसे, ३०. बारह वर्ष के दुर्भिक्ष में भी संघ परेशान हो रहा था तब विद्याबल के द्वारा दूसरे देशों से अन्नपूर्ति करी, ३१. ऐसे धर्म की धरा को धारण करने में शेषनाग की मणि के समान पराक्रमी और
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