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________________ युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान २२९ स्थिरता में मेरु पर्वत समान दशपूर्वधारी आचार्यश्री वज्रस्वामीसूरि को आप सभी वंदन करें। ३२. अपनी माता के वचनों का पालन करने में तत्पर ऐसे (आर्यरक्षित), दृष्टिवाद सूत्र पढने के लिए जो सद्गुरु के पास ढढर नाम के श्रावक के साथ गये, ३३. और ढहर श्रावक के अनुसार आचार्य और मुनियों को वंदन किया। उसके बाद श्रावक को वंदन नहीं किया। तब गुरु ने पूछा कि३४. यहाँ पर तुम्हारे धर्मगुरु कौन है ? तब चतुर आर्यरक्षितने विनयपूर्वक नमस्कार करके ढह्वर श्रावक को बताया ये मेरे गुरु है। ३५. इस प्रकार सद्गुरु का अपलाप न करते हुए जिन्होने आचार्य के पास जिनमत सुनकर सावद्य का त्याग करते प्रव्रज्या पर्वत पर आरुढ हुए। ३६. सिंहवत् संसार में से निकलकर सिंहवत् चारित्र का पालन किया और साढेनव पूर्व का श्रुतज्ञान प्राप्त किया और आचार्य हुए। ३७. महाविदेह में इन्द्र के पूछने पर तीर्थंकर भगवंत ने कहा कि भरत क्षेत्र में निगोद का स्वरूप जाननेवाला (आर्यरक्षित)है। ३८. ऐसा सुनकर ब्राह्मण के रूप में इन्द्र जिस आचार्य को पूछता है कि हे भगवान मेरा आयुष्य कितना है आप प्रगटरूप में जानते हो तो बताओ। ३९. उसके बाद आचार्य ने आयुष्य का प्रमाण जानकर कहा कि आप शक्र हो, और निगोद जीवों की प्ररूपणा की। ४०-४१. तब प्रसन्न मनवाले इन्द्र ने जिस महातप सत्त्वशाली के तप की स्तुति की, और पक्षपात से सिद्धान्त में उसकी स्थापना की और प्राणियों को जो अक्षयपद (मोक्षपद)देने में अत्यन्त जिम्मेदार है, ऐसे पाप कर्मो को नाश करनेवाले आर्य रक्षितसूरि को मैं नमस्कार करता हूँ। ४२-४३. जगत् में जो भी जिन सिद्धान्त की सम्यग् देशना करनेवाले (सिद्धान्त की प्ररूपणा करनेवाले)चारित्र गुण के सागर, नवपूर्व आदि जानकार (अन्य मती)हाथियों के लिए सिंह समान, जनमन को आनंद देने वाले जो भी सुगृहित नामधेय गुरु भगवंत हुए उन सभी का मुझे शरण हो। ४४. अज्ञानरूपी जल से प्रचुर संसारसागर में पड़े हुए प्राणी गणों को जिन्होने करुणा से जिनप्रवचन द्वारा जिनमत में स्थापित किये, ४५. शिलांगों का पालन करके, समग्र सिद्धान्तों के सार को चुनकर, जिन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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