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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
४. सूर्य किरणों के प्रसार को तिरस्कृत करनेवाले, दिपक की भांति जिसका श्रुतज्ञान जनता के मनरूपी घर में रहे हुए संशय तिमिर को हरने में प्रभावशाली रहता है ऐसे, तिर्यञ्च, मनुष्य, दानव, देवेन्द्रों से नमस्कृत और ज्ञानरूपी लक्ष्मी के निधान, महासत्त्वशाली गौतम गणधर को वंदन करता हूँ ।
५.
६.
वर्धमान स्वामी ने जिसको समग्रतीर्थ का भार वहन करने के लिए मुनिगणों को समर्पित किया और प्रतिपक्षिओं ( राग-द्वेष) का विनाश करने से जिसने जगत को प्रकाशित किया है,
७. तीन जगत जिसके चरणों को नमस्कार करते हैं, कामदेवरूपी हस्ती को जीतने में अष्टापद समान पंचम गणधर सुधर्मास्वामी को नमस्कार करता हूँ ।
८.
चपल चक्षुवाली, मन को हरण करनेवाली (मनोहर) रमणियों ने भव-स्वभाव जानकर भी (लग्न किया) ऐसा (भावित किया) -सोचा कि
९.
जैसे छोटे दिन के अन्त में (शरीर के अन्तमें तन> अभ्य, शरीर) सूर्य अस्ताचल के शीखर पर आरुढ होता है उसी तरह अवसानरूपी सायंकाल में ज्ञानरूपी सूर्य अस्त होता है ।
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१०. सुधर्मा गणधर के शिष्य, गणधरपद को पालन करनेवाले, शिष्य के लिये आश्रयभूत गुणवान् जम्बू को वंदन करता हूँ ।
११.
दीक्षा अंगीकार करने की इच्छावाले, जंबूस्वामी के उपदेश से प्राप्त हुआ है उत्तम विवेक जिसको, युगप्रधान पदवी को पालन करनेवाले ऐसे श्री प्रभवस्वामी को मैं सदा वंदन करता हूँ ।
१२. 'अहो कष्टं परं एतत् तत्त्वं न ज्ञायते "
( अहो यह कष्ट है, फिर भी तत्त्व नहीं जानते ) ऐसा उपदेश सुनने से जिनका चित्त संसार से विरक्त हुआ है वैसे श्री शय्यंभवसूरि को वंदन करता हूँ ।
१३.
रौद्रतत्त्व को जिन्होने प्रणयवान् किया। (स्नेहवान ) सुख और विभूति के पात्र गुणवान यशोभद्रसूरि गणधर का स्मरण करता हूँ ।
१४. श्रेष्ठ विवेकरूपी नाँव से जैनसिद्धान्त पारगामी श्री भद्रबाहु गुरु के नामाक्षरों को हम हृदय में धारण करते हैं ।
"
१५. वह स्थूलभद्र मुनियों के बिच में प्रशंसा क्यों न पावे ? कि जो लिलामात्र में अपने उत्साह से कामदेव को मारकर वापिस आये,
१६.
कामरूपी प्रदीप की शिखा समान स्नेहभरी कोशा वेश्या के कारण भी जिनकी
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