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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
पुढवाई जीव नवभेय जाणए देसए य तत्ताणं । सयमेव पालणाए कारए य समयाणुवित्तीए ॥ ६७ ॥ आउढिदप्पकप्पप्पमाय परियाणए जिणाणाए । अणवज्जभासणे सईसमुज्जए चरणकरणेसु ॥ ६८ ॥ पुव्वावरेण मुणिउं अविचलचित्तेहिं समयसुत्ताई । व्वाणं भणिया पक्खा निरवेक्ख सावेक्खा ॥ ६९ ॥ पत्तमपत्तं नाउं कुणति जे देसणं महासत्ता । मग्गपवन्ना मग्गमिट्ठावणाडाइ पाणीणं ॥ ७० ॥ जे दुज्जणदुव्वयणं सोऊण न माणसंमि ठावेंति । फरुसंभणिया वि न जे परप्प (प्फु) संमि वति ॥ ७१ ॥ जइ कहवि पमायवसा सम्मं सयमेव नो पयट्टंति । तहविहु जिण भणियं जहठियं जे परूवेंति ॥ ७२ ॥ उप्पएण परमकरुणाहि जेहि मह कम्मसत्तणो सव्वे | पड़िहयपसराउ कया देउं चउरंगबलममलं ॥ ७३ ॥ उम्मग्गओ मग्गमि द्वाविंति सुगुणसंठिएहिं पय । सिरिधम्मगुरूण महं तेसिं वयणे पणियाणि ( मि ) ॥ ७४ ॥ इय सुहगुरू-गुण-संथव-सत्तरिया सोमचंद - जुन्ह व्व । भव-भक्खर-ताव-हरा भणिज्जमाणा लहुं होउ ।। ७५ ।।
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इय सुगुरु गुण संथव सत्तरिया समाप्तः
सुगुरु- संस्तव सप्ततिका (भाषान्तर)
१. गुणरूपी रत्नों को उत्पन्न करने में रोहणाचल समान श्री ऋषभदेव के प्रथम मुनिपति श्री ऋषभसेन गणधर के पवित्र चरणकमल में नमस्कार करता हूँ ।
२.
नमस्कार करनेवाले प्राणियों को आनंद देनेवाले, अदीन मनवाले, श्रेष्ठ गुणों वाले अजितादि तीर्थंकरों की और उनके गणधरों की स्तुति करता हूँ ।
३.
श्रेष्ठ ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूपी रत्नों के समुद्र समान त्रिभुवन स्वामी, शत्रुओं ( रागद्वेषरूपी) को नाश करनेवाले श्री वर्धमानस्वामी के श्रेष्ठ शिष्य,
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