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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान अलंकार:श्लेष अलंकार :
जहिं घरि बंधु जुय जुय दीसई तं घरु पडइ वहंतु न दीसई। जं दढबंधु गेहु तं बलियउ
जडि भिजतउ सेसउ गलिउ ।। २६ ।। यहाँ पर दृढ बन्धु में दो अर्थों को समाविष्ट किया गया है । एक दृढ बंध (मजबूत बंधन) वाला घर,
दूसरा आपसी बन्धु बांधवों का दृढ मेल मिलाप । अतः श्लेषालंकार है। (२) पुणवसु हत्थि चडइ सो चित्तइ
सोमु सुरु पुत्तु वि भावित्तह। जो किर चित्तह मज्झिन पविसइ
जेट्ठह मूलि सु कहिं किव होसइ ।। २८ प्रस्तुत गाथा में “पुणवसु हत्थि चडइ सो चित्तह॥'
अर्थात् जो पुन्यवशात् सौम्य-प्रशान्त और यशस्वी होता है वही माता-पिता के चित्त में स्थान प्राप्त कर लेता है।
दूसरेअर्थ में पुनर्वसु आदि मूल नक्षत्र ग्रहों के साथ क्रम से रहकर महत्ता को प्राप्त होते हैं। अन्यथा नहीं। इस प्रकार द्वयर्थक होने से श्लेषालंकार है।
लोहिण रहिउ पोउ गुरुसायरु दीसइ तरंतु जइ वि जडवायरु। लाहउ करइ सु पारु वि पावइ
वाणियाह धरणिद्धि वि दावइ ॥ ३० ॥ यहाँ पर लोहरहित जहाज बड़े भारी समुद्र को पार कर जाता है। दूसरे अर्थ में लोभरहित मनुष्य गुरुओं के प्रति आदर भाव वाला होता हुआ संसार समुद्र से पार हो जाता है। अतएव द्वयर्थक होने से श्लेषालंकार होता है। लोह के दो अर्थ है।
(१) लोह = लोहा (२) लोह - लोभ
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