________________
युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
२०९
अर्थात् पुनः संसार में जन्म नहीं लेते हैं । अन्तिमपद में कर्त्ता ने अपना नाम "जिनदत्तसूरि" यह सूचित किया है।
'कालस्वरूप कुलक' की विषयवस्तु के स्पष्टीकरण के बाद मूल्यांकन के रूप में संक्षेप में निम्न बातों का ध्यान रखा गया है।
(१) कालस्वरूप कुलक में कुगुरु एवं सुगुरु के भेद को बताया गया है। सुगुरु औषधिरूप है और कुगुरु व्याधिरूप है ।
(२) मानवजीवन की मौलिकता का निरूपण किया गया है।
(३) सद्गृहस्थों के जीवनयापन की चर्चा विस्तार से की गई हैं । (४) सद्गुरु के उपदेशों को सुनकर प्रभुभक्ति और गुरुभक्ति करने का उपदेश दिया गया है।
(५) मानव सेवा ही मोक्ष का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है। इन सभी विषयों का निरूपण किया गया है ।
(६) आचार्यश्री के द्वारा ज्योतिषशास्त्र का भी यहाँ निरूपण किया गया है इससे उनकी अपूर्व प्रतिभा का परिचय प्राप्त हो रहा है ।
छन्द :
आचार्यश्री ने “कालस्वरूप कुलक" में आद्यान्त “ पद्धटिका” छन्द का प्रयोग किया है । इस छन्द में ४+४+४+४= १६ मात्राएं होती हैं ।
1
कई छन्दशास्त्री चतुर्थं मात्रा का क्रम ॥ मानते हैं । तो कुछ ISI मानते हैं । लद्धि नरत्ति अणारिय देसेहिं
उदा.
को गुण तह विणु सुगुरुवएसिहि ? ।
आरियदेस जाइ - कुलजुत्तउ काइ करेइनरत्तु विपत्तउ
//
(कालस्वरूप कुलक- १४ )
रस :
प्रस्तुत कृति "कालस्वरूपकुलक" हितोपदेशमय है। गृहस्थ के लिए योग्य शिक्षाओं से ही यह कृति परिपूर्ण है। संयुक्त परिवार में रहकर सभी सुखमय 'जीवनयापन करें यहीं कृति का ध्येय है । सामाजिक स्थिति का वर्णन भी किया गया है । कृति में भक्तिभाव का रस तो प्रवाहित हो रहा है। इसलिए "शान्तरस" का कवि ने सहारा लिया है। क्योंकि उपदेश तो प्रायः शान्तिपरक ही होते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org