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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान अतिशयोक्ति - अलंकार :
कालियासु कई आसि जु लोइहिं वन्नियइ ताव जाव जिणवल्लहु कइ नाअन्नियइ। अप्पु चित्तु परियाणहि तं पि विसुद्ध न य
ते वि चित्तकइराय भणिज्जहि मुद्धनय ॥५॥ यहाँ पर जिनवल्लभसूरि की प्रभा एवं ऐश्वर्य के सामने कालिदासादि कवियों की कुछ भी पहचान नहीं है।
कहने का तात्पर्य है कि अन्य कवियों की पहचान मात्र तब तक है जब तक जिनवल्लभसूरी का उदय नहीं होता।
यहाँ पर बातों की चर्चा को स्वाभाविकता से उपर उठा दिया गया है अत: अतिशयोक्ति अलंकार है।
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३. कालस्वरूप कुलक 'कालस्वरूपकुलक' अपभ्रंश भाषा में विरचित लघु कृति हैं। इसमें ३२ पद्य, पद्धटिका (पद्धड़िया)छंद का प्रयोग किया गया है।
इस कृति के रचनाकाल के सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस कृति पर अनेक वृत्तियाँ और संस्कृत छाया सह हिन्दी अनुवाद उपलब्ध
प्रस्तुत कृति में १२ वीं सदी के समय की सामाजिक स्थिति का विषम स्वरूप दिखलाया गया है। जिसके अन्तर्गत लोगों में धर्म के प्रति अनादर, मोह, निद्रा की प्रबलता और गुरु वचनों के प्रति अरुचि, श्रद्धाहीन लोगों का विपरीत व्यवहार, असंयत की पूजा आदि विषयों का निरूपण किया गया है।
(अ)
प.पू. श्री जिनपतिरिजी के शिष्य सुरप्रभ उपाध्याय द्वार । संस्कृत में वृत्ति लिखी गयी। अपभ्रंश काव्यत्रवी - मूल सह संस्कृत छाया, पृष्ठ ६७ से ८०, प्रकाशनओरिएन्टल इंस्टीट्यूट, बड़ोदा. चर्चर्यादि संग्रह, सह भाषान्तर - जिनहरिसागरसूरि, पृ.४४-५३, प्रकाशकजिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार, सूरत
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