________________
१९८
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
विरोधाभास अलंकार :
जो अपमाणु पमाणइ छद्दरिसण तणइ जाणइ जिव नियनामु न तिण जिव कुवि घणइ । परपरिवाइगइंदवियारण पंचमुहु
तसु गुणवन्नणु करण कु सक्कइ इक्कमुहु ॥ २ ॥ जो अप्रमाण अर्थात् सर्वथा प्रमाण रहित होते हुए भी छह दर्शनों के प्रत्यक्षादि बहुत प्रमाणों को अपने नाम के जैसे जानते है।
जो अप्रमाण अर्थात् सर्वथा प्रमाणरहित होने पर भी बहुत प्रमाणों से युक्त है। इसलिए विरोधाभास अलंकार है।
इक्कवयणु जिणवल्लहु पहु वयणइ घणइं किं व जंपिवि जणु सक्कइ सक्कु वि जइ मुणइ। तसु पयभत्तह सत्तह सत्तह भवभयह
होइ अंतु सुनिरुत्तउ तव्वयणुज्जयह ।। ४१॥ श्री जिनवल्लभ प्रभु एकवचनी होते हुए भी श्री वीरषट् कल्याण-विधि-विषय - पारतन्त्र-चैत्य साधुगत कृत्याकृत-छह हाथ प्रमाण साधुप्रवारण कल्प कषायादि द्रव्याहत जलग्रहणादि बहुत से वचनों को कैसे बोल सकते हैं। एक वचन की शक्तिवाला बहुत वचनों को कैसे बोल सकता है।
यहाँ पर दोनों बातें एक दूसरे से विरोधी हैं इसलिए विरोधाभास अलंकार है। श्लेष अलंकार :
जो वायरणु वियाणइ सुहलक्खणनिलउ सहु असदु वियारइ सुवियक्खणतिलउ। सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ
गुरु लहु लहिं पइठावइ नरहिउ विजयमउ ॥३॥ यहाँ पर तृतीय और चतुर्थ चरण में अच्छे यतिविरामवाले नगण-रगण सहित विशिष्ट जगण यगण आदि गणों को छन्दों का उचिततापूर्वक उपयोग किया है। दूसरे अर्थ में सुयति मान्त्र जनहितकारी व्याख्यान के पश्चात् बड़े-छोटे मुनियों को पाकर उनको यथास्थान आचार्यादि पद पर प्रतिष्छित करते थे। यहाँ द्वि-अर्थकता श्लेषालंकार दर्शाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org