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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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प्रस्तुत श्लोकों के द्वारा “श्री दादासाहब ” जिनमन्दिरों में निषिद्ध वस्तुओं के बारे में बताते है कि :
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जहाँ पर अर्थात् जिनालयों में श्रावक द्वारा तांबूल खाना, उत्सूत्र प्रवचन करनेवाले दुष्ट साधुओं का चैत्यों में व्याख्यान तथा सांसारिक वासनाओं की वृद्धि करनेवाले गीत-भजन, श्रावकों द्वारा निन्दित कर्मों का आचरण, धार्मिक पुरुष को कष्ट पहुँचाना, शुद्ध श्रावकों को शस्त्रों के साथ जिनालयों में प्रवेश, उपहास, मजाक तथा होड़ लगाना, द्यूतादि क्रिया, नटों का चैत्य प्रवेश, संक्रान्ति व ग्रहण के समय स्नानदान, माघमास में (माघमाला) (अष्टाह्निका पूजा में ) मण्डलादि की रचना करना, मलिन वस्त्र धारण या मलिन वस्त्र से जिनेश्वर की पूजा करना, श्राविकाओं द्वारा मूल प्रतिमा का स्पर्श आदि बातों का विधि चैत्यों में निषेध किया गया है।
इन चैत्यों में अविधिमार्गनुयायियों का प्रवेश भी अभीष्ट नहीं हैं। जिन चैत्यों के सान्निध्य में न किये जाने वाले कार्यों का वर्णन इसलिए किया गया है कि यदि उपरोक्त वर्णित क्रिया-कलाप, हास - विलास अनुपयुक्त भजन आदि क्रियाएं सम्पन्न हों तो वहाँ वास्तव्य श्रावक श्राविकाओं पर कुप्रभाव पड़ता है। जिससे संसर्गदोष उत्पन्न होना सम्भव है, जो उनके शुद्ध विधिमार्ग में बाधक है।
आचार्यश्री ने उपरोक्त बातों का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि उस समय उस समाज में चैत्यवास का प्रभाव था । कुरीतियों एवं कुभावनाओं का प्रभाव हो चुका था। इसी कारण आचार्य श्री को जिनचैत्यों में होती आशातनाओं का निवारण करने के लिए कुछ कटु शब्दों का उपयोग करना पड़ा। जिन चैत्य में अविधि मार्ग पर चलने वालो का प्रवेश निषेध बताया गया है। किन्तु जैनसिद्धान्तों का पालन करने वाले विधि चैत्य में जाने के अधिकारी हैं ।
आचार्यश्री जिनवल्लभसूरिजी ने उत्सूत्र बातों का तथा सूत्रानुसारी विधिमार्ग का स्पष्ट निर्देश किया है। केवल उत्सूत्र तत्त्वों का निषेध नहीं किया, किन्तु जिन मन्दिरों में प्रशस्ति रूप में उन्हें लिखवा कर आगे के लिए भी मार्ग प्रशस्त किया है । २८ ॥
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पंचविहाभिगओ अहवामुच्चमुच्वंति रायतिण्हाई ।
खग छत्तोवाणह मउडं चामर अ पंचमए ॥ २१ ॥
अर्थ :- चैत्यवंदन भाष्य में ५ अभिगमों का वर्णन आता है । जिनमंदिर में जाते समय तलवार (खड्ग) छत्र, पादूका, मुकुट और चामर का त्याग करना चाहिए ।
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