SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान विधि चैत्यों में आचारकर्म कराता हुआ सुविधि देखने वाला दीर्घदृष्टि लोगों को नहीं दिखाई देता । रात्रि में स्नान प्रतिष्ठा, साधु-साध्वी या स्त्रियों का प्रवेश और विलासिनियों का नृत्य आदि वर्जित है । इन उपरोक्त कर्मों को न करने का आदेश दिया है, परन्तु समयोचित एवं सुयोग्य आचार्य के देखरेख में जिसने विधि मार्ग का उल्लंघन न किया हो। इन सबके अतिरिक्त सूर्यास्त के बाद नैवेद्य का चढाना, शयन के समय वाद्यों का वादन, रथयात्रा, दांडिया रास आदि का विरोध दर्शाया गया है। १९० क्यों कि उपरोक्त कर्मो से चैत्यवंदन गृहों में विभिन्न प्रकार की बुराइयाँ फैलने लगती है जिससे जिनाज्ञा का पालन न होकर, आशातनाएं होती है। जिससे पापाचरण बढ़ता जाता है । और धीरे-धीरे ये कलुषित विचार एवं कलुषित कर्म चैत्यगृहों से निकलकर समाज में प्रदूषण की भाँति फैल जाते हैं जिससे लोककल्याण की जगह पर लोकपतन प्रारम्भ हो जाता है । इसलिए इन उपरोक्त बातों का विधि- चैत्यों में निषेध किया गया है । इन शास्त्र - विरुद्ध प्रवृत्तियों का आचार्यश्री ने जमकर विरोध किया है। आचार्यश्री “जिनमंदिर”में निषिद्ध वस्तुओं का वर्णन करते हुए कहते है : जहि सावय तंबोल न भकखहि लिंति न य जहि पाणहि य धरंति न सावय सुद्धनय ॥ २१ ॥ *** Jain Education International हासु न वि हुड्डु न खिड्ड न रूसणउ *** मिलिय ति केलि करंति समाणु महेलियहिं ॥ २२ ॥ *** जहि संकंति न गहणुन गाहि न मंडलउ । *** सावयजणिहि न कीरइ जहि गिहचिन्तणउ ॥ २३ ॥ *** आरत्तिउ उत्तारिउ जं किर जिणवरह तं पि उत्तारिज्जइं बीयजिणेसरह ।। २४ ।। *** For Private & Personal Use Only -: www.jainelibrary.org
SR No.002768
Book TitleJinduttasuri ka Jain Dharma evam Sahitya me Yogdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSmitpragnashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year1999
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy