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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
चेईहरि अणुचियई जि गीयई वाइयइ तह पिच्छण-थुइ-थुत्तइं खिड्डइं कोउयइ। विरहकिण किर तित्थुत्ति सव्वि निवारियइ
तेहिं कइहिं आसायण तेण न कारियइ ।। १२ ।। देव मन्दिर में अनुचित गायन वादन और अभिनय के द्वारा स्तुति स्तोत्र क्रीडा और कौतुकादिकों को, विरहांक श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजा ने निश्चय करके निषिद्ध कर दिया था क्योंकि ऐसा करने से श्री वीतराग मन्दिर में आशातना लगती है। शिथिलाचारियों द्वारा फिर से प्रवर्तित उन गाने बजाने की प्रमोदजनक प्रवृत्तियों को श्री जिनवल्लभसूरीश्वरजी महाराज द्वारा भी निषेध किया गया हैं।
इस प्रकार गाथा संख्या १२-१३, १४-१५ और १६ में विधि चैत्यों का वर्णन किया गया तथा अकृत्य एवं कृत्यों का वर्णन किया गया है। उस समय में चैत्य गृहों में विभिन्न प्रकार के कदाग्रहियों का प्रवेश हो चुका था। वे कदाग्रही हमेशा धर्मविरुद्ध बातें करके योग्य एवं सज्जनों को भी कुविचारों के जाल में फँसा कर उन्हें धर्मच्युत करने लग गये थे। दिन प्रतिदिन उनका पतन होने लगा था । गाथा संख्या १४ में यह बताया गया है कि श्री जिनवल्लभसूरि ने भ्रष्ट लोगों को भी अपने उपदेशों के प्रभाव से धर्म मार्ग पर लगाया और भ्रष्ट होती हुई धर्मभावना को पुनः जाग्रत करके विधि मार्ग को प्रकाशवान् बनाया।
पुनः अविधि मार्ग से लौटे हुए लोग आचार्यश्री के विधिमार्ग के ज्ञान को प्राप्त कर आनन्द मग्न हो गये। आचार्यश्री विधि का वर्णन करते हुए लिखते है
निसि न हाणु न पइट्ठ न साहुहि साहुणिहि निसि जुवइहिं न पवेसु न नट्ट विलासिणिहि ॥ १६ ॥ निसिहिं न नन्दि करावि कुवि किर लेइवउ बालि दिणयरि अत्थमियइ जहि न हु जिणपुरउ ॥१८॥
*** लउडारासु जहिं पुरिसु वि दिंतइ वारियइ जहि जलकीडंदोलण हुंति न देवयह
माहमाल न निसिद्धि कयअट्ठाहियह ।। १९ ।। यहाँ पर आचार्यश्री गाथा संख्या १६ से १९ गाथा के द्वारा चैत्यगृहों में होने एवं न होने वाली विधियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
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