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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान इस उक्ति के द्वारा भावी पीढी को भी जाग्रत किया गया है। चर्चरी टीकाकार जिनपालोपाध्याय ने इसकी व्याख्या करते हुए प्रशस्तियों में निम्नलिखित निर्देश किया है। ४४
___ उपरोक्त बातों के स्पष्टीकरणोपरान्त तीन प्रकार के चैत्य का वर्णन किया गया
है :
उस्सग्गिण विहिचेइउ पढमु पयासियउ। निस्साकडु अववाइण दुइउ निदंसियउ। जहि किर लिंगिय निवसहि तमिह अणायरणु।
तहि निसिद्ध सिद्धति वि धम्मियजणगमणु ॥ ३८-३९ ।। जिन चैत्यों के वर्णन के साथ-साथ उसमें गमन निर्देश तथा उससे होनेवाले हानि-लाभ का वर्णन करते हुए लिखते हैं -
१. विधि चैत्य - (अनिश्राचैत्य) जो शास्त्र सम्मत है, आयतन है, जिसमें उपर्युक्त कथित आशातनाओं का अभाव है, शुद्ध धर्म का पालन करनेवाले, साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका जाते रहते हैं। जिसमें किसी का ममत्व एवं स्वामित्व नहीं है। जहाँ रात्रि में स्नान, दीक्षा आदि निषेधात्मक कार्य नहीं होते उसे विधि चेत्य कहते हैं। वहाँ जाने से शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त होती है।
२.निश्राकृत चैत्य- पार्श्वस्थादिकों से प्रेरित होकर श्रावक जिन चैत्यों का निर्माण करवाते हैं उसे निश्राकृत चैत्य कहते हैं। इन निश्राकृत चैत्यों में उनकी ममत्वस्वामित्वभावना रहती हैं। इन चैत्यों का उपयोग (दर्शनार्थ)विधिचैत्य के अभाव में अष्टमी, चतुर्दशी तथा पर्दूषण आदि पर्वो पर श्रावक-श्राविकाओं एवं साधु-साध्वी अपवाद में जिन वन्दन का कार्य कर सकते हैं। इसलिए चर्चरी में स्पष्ट लिखा है -
“विणु कारणि तहि गमणु ण न कुणहिं जिणसुविहिइं"४५५ असूत्रोत्सूत्र जनक्रमो न च न च स्नात्रं रजन्यां सदा, साधूनां ममताश्रयो न च न च स्त्रीणां प्रवेशो निशि ॥ जातिज्ञातिकदाग्रहो न च न च श्राद्धेषु ताम्बूलानि, व्यासाऽत्रेयमनिश्रिते विधिकृते श्रीवीरचैत्यालये ।। इह न लगुडरासः स्त्रीप्रवेशो न रात्रौ । श्री जिनवल्लभसूरि आगमोद्धार में लिखते हैं :अवसन्ना एव तत्रैव यान्ति चैत्यवन्दकाः । येषां निश्रया तद्भवनं श्राद्धभिरपि कारितम् ।।
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