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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान चर्चरी गीत की मधुरता एवं कर्णप्रियताने लोगों को मुग्ध कर दिया। अतः चैत्यगृह भी चर्चरियों से गुंजरित होने लगे, कालान्तर में इस गीत ने विशेष छन्द का रूप धारण कर लिया।
आचार्य जिनदत्तसूरि विरचित “चर्चरी''इस बात का सबल प्रमाण है कि उस समय में जैन चैत्यों में श्रृंगार रस पूर्ण चर्चरियाँ चलती थीं। इसके श्रृंगारिक उत्कट रूप से श्रावकों की चारित्रिक शिथिलता की विशेष संभावना थी जिसके विरुद्ध आचार्य जिनदत्तसूरिजीने आंदोलन किया। और लोक कल्याण एवं समाज उन्नति को ध्यान में रखकर “चर्चरी' नामक उद्बोधन ग्रन्थ का निर्माण किया। चैत्यवास की विभिन्न आशातनाओं को देखकर धर्म के प्रति हो रही अवहेलनाओं को दूर करने के लिए उन्होने अपनी “चर्चरी'' में उत्सूत्रभाषियों के त्याग व चैत्यगृह में अपमानद्योतक तथा श्रृंगारिक गीत, वाद्य, नर्तन, क्रीडा कौतुक आदि का निषेध किया। चैत्यगृहों में लकुटरास को सर्वथा त्याज्य माना।
तत्कालीन धार्मिक वातावरण तथा पद्धतिओं के अध्ययन की दृष्टि से चर्चरी ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं शिक्षाप्रद है । क्योकि इसने श्रावको के शैथिल्य को दूर करने के लिए तथा जिनचैत्यों में नृत्यादि श्रृंगारिक कृतियों से जैन मुनियों एवं श्रावकों में बढ़ती हुई भावुकता का निषेध करके लोककल्याण एवं समाज सुधार का सराहनीय कार्य किया।
कार्य-कारण का सम्बन्ध अन्योन्याश्रय हुआ करता है। इस प्रकार जैन सम्प्रदाय में जैन साहित्य का विपुल भण्डार भरा हुआ था तो “चर्चरी' नामक ग्रन्थ की रचना की आवश्यकता दादा साहब को क्यों हुई ?
इसके उत्तर स्वरूप कहा जा सकता है कि विपुल भण्डार के वर्तमान होने पर भी उनसे प्राप्त होने वाले सन्देश वास्तविक संदेश न रहकर खोखले हो चुके थे। वर्तमान जैन साहित्य के उस खोखलेपन को दूर करने के लिए एवं समाज में एक सुन्दर एवं सुगठित धार्मिक समाज की स्थापना के लिए दादाजी ने उपदेश परिपूर्ण “चर्चरी' नामक ग्रन्थ की रचना की। इस प्रकार सरल, सुस्पष्ट एवं सुन्दर शैली में लिखी यह रचना उस समय के लिए खूब सहेतुक सिद्ध हुई थी।
___ इस प्रकार उपरोक्त विवरण के बाद क्रमेण ग्रन्थ के विषयवस्तु की तरफ दृष्टि करने से पता लगता है कि चर्चरी की विषय वस्तु भी अत्यन्त स्पष्ट है । अध्ययन की दृष्टि से चर्चरी को निम्न भागों में विभाजित किया जा सकता है। इस ग्रन्थ में कुल ४७ गाथाएं है।
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