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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१. धर्म एवं जिन स्तुति अर्थात् मंगलाचरण २. आचार्य श्री की अन्य कवियों से तुलना तथा षड्दर्शन का वर्णन। ३. चैत्य गृहों एवं जिनालयों में बढ़ रहे पापाचरण एवं लास्यादि क्रियाओं का
वर्णन।
४. उनके सुधार के लिए किये गये प्रयासों का वर्णन।
५. युग प्रधान गुरु लक्षण, संघ लक्षण, एवं विविध प्रकार के अन्य लक्षणों का वर्णन।
६. जैन धर्मानुयायियों के लिए अर्थात् श्रावक श्राविकाओं के कल्याण के लिए विविध मार्गदर्शन।
प्रस्तुत ग्रन्थ में आचार्य जिनवल्लभसूरिजी की स्तुति करते हुए श्री दादाजीने उन्हें कालिदासादि कवियों से भी बढ़कर बताया है। इनकी विद्वत्ता का तथा उनके द्वारा विधि-विहित वसतिवास की स्थापना का भी विस्तृत उल्लेख है।
अनाचारी चैत्यवासियों के अविधिमार्ग के वर्णन के साथ-साथ श्रावकाचार वर्णन एवं गुर्वावलि आदि विषयों का निरूपण किया गया है।
आचार्यश्री ने सर्वप्रथम मंगलाचरण स्वरूप धर्मनाथ भगवान को वन्दन करके, गुरुवर्णन में अत्युक्ति से काम किया है। गुरु की प्रशस्ति करते हुए वे कहते हैं कि
परपरिवाइगइंदवियारणपंचमुहु तसु गुणवन्नणु करण कु सक्कइ इक्कमुहु ? ॥२॥
*** जो वायरणु वियाणइ सुहलक्खणनिलउ सद्दु असढु वियारइ सुवियक्खणतिलउ । सुच्छंदिण वक्खाणइ छंदु जु सुजइमउ गुरु लह लहि पइठावइ नरहिउ विजयमउ ॥ ३ ॥
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सुकइ माहु ति पसंसहि जे तसु सुह गुरुहु साहु न मुणहि अयाणुय मइजियसुरगुरुहु ॥ ४ ॥
कालियासु कइ आसि जु लोइहिं वन्नियइ ।। ५ ।।
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