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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
"ते - ते - गिध बोलों से युक्त ताल द्वारा रास नृत्य किया जाय अथवा चर्चरी ताल के अनुसार चार आवर्तन में नर्तन हो उसे चर्चरी नृत्य कहते हैं । जहाँ रास क्रम के अनुसार वाद्य बज रहा हो, युगल रूप में चर्चरी को बार-बार गाती हुई अथवा श्रृंगार वर्णन से युक्त द्विपदी को गाती हुई नायिकाएं (नर्त्तकियाँ) नर्तन करें तो उसे केवल चर्चरी कहते हैं । १३८
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(१०) श्री अगरचन्द नाहटा के अनुसार
रास की भाँति ताल एवं नृत्य के साथ विशेषतः उत्सव आदि में उपयोग की जानेवाली रचना को " चर्चरी " संज्ञा दी गयी है । ३९
(११) श्री जिनदत्तसूरिजी की चर्चरी में उसके टीकाकार श्री जिनपाल उपाध्याय ने लिखा है कि- "भाषा निबद्ध गान- नाचकर गाया जाता है उसे चर्चरी कहते है । ४० (१२) श्री हजूर प्रकाशमणि नामसाहब के अनुसार
"चाचर एक प्रकार का फगुआ या फाग ( होली) का खेल होता है। उक्त खेलों और पुरुष दो दलों विभक्त होकर जय और पराजय की अभिलाषा से पिचकारी और डोलचियों से परस्पर प्रतियोगिता से समाधिक जल-क्रीडा करते हैं । ११४१ वीजक से यह आभास हो जाता है कि चांचर फगुआ से संबद्ध है । फिर बीजक में दो पद चांचर हैं। दोनों के छन्द अलग-अलग हैं। इससे सूचित होता है कि इसके लिए कोई एक शब्द नियत नहीं था ।
(१३) डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी के "जनपद वर्ण” अंक १ के अनुसार" चर्चरी में केवल गान का रूप नहीं लिया है। आध्यात्मिक उपदेश में चर्चरी जैसे लोकप्रियगान के प्रिय विषय श्रृंगाररस का आभास देने का भी प्रयत्न है 1
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नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वाराणसी - वर्ष ५८, अंक-४, पृ.४३१ रास और रासान्वयी काव्य - डा. दशरथ ओझा, पृ.सं. ५२-पद-२१९ अपभ्रंश काव्यत्रयी - प्रस्तावना
हजूर प्रकाश मणि नाम साहब
"कबीर साहब का बीजक ग्रन्थ " पृ.सं. ३६२
डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी, जनपद वर्ष १, अंक ३, पृ. ८
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