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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
माहमाल - जलकीलंदोलय ति वि अजुत्त न करंति गुणालय ।
बलि अत्थमियइ दिणयरि न धरहिं
घरकज पुण जिणहरि न करहिं ॥ ३९ ॥
उपरोक्त ३७, ३८ और ३९ गाथाओं के आधार पर अशास्त्रीय तथा उन्मार्ग में ले जानेवाली समस्त क्रियाएँ जैसे कि - माधमाला, (माल रोपण), जल क्रीडा, देवताओं को हिंडोला देना, हँसी मजाक करना, रात्रि में नैवेद्य चढ़ाना आदि प्रवृत्तियाँ वर्जित होनी चाहिए। भले ही वे बाह्यरूप से भक्ति का साधन प्रतीत होती हों, ये सभी क्रियाएं श्रृंगारिक एवं पतित करनेवाली हैं।
इन सब अशास्त्रीय कृत्यों का पूर्णतया निषेध होना चाहिए। इन सब अशास्त्रीय आशातनाओं को देखकर दादाजीने इनके विरोध में जमकर आन्दोलन आरम्भ किया । तथा जो शास्त्र सम्मत एवं जिनमन्दिरों के लिए योग्य नियम हैं उनका विधान किया । आपने जिनमन्दिरों एवं श्रावक-श्राविकाओं की प्रतिष्ठा बढ़े ऐसे विधानों को लागू किया ।
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इस प्रकार उपरोक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय चैत्यवास में प्रसरित सभी कुरीतियों एवं दुर्गुणों का दादासाहेब ने कट्टरता से विरोध किया । जिनालयों की प्रतिष्ठा हेतु हर सम्भव प्रयास के लिए आचार्य श्री हमेशा तत्पर रहते थे । वस्तुतः आचार्यश्री का यह प्रतिपादन शास्त्रीय दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । आचार्यवर्य पुनः विशिष्टाचार्य के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि:
युगप्रधान वे ही आचार्य पद के योग्य हैं, जो विधि चैत्यों में व्याख्यान देते हैं, नन्दी स्थापना एवं मूर्त्ति प्रतिष्ठा के अधिकारी होते हैं। एक काल में एक ही युगप्रधान को मानते हैं जो जिनशासन के योग्य सुसम्पन्न कार्यों का विधान करवाते हैं।
ये युगप्रधान छद्मस्थ होते हुए भी तीनों काल की बातों को जानते हैं, जिनका मन कषायों २१ से रहित होता है देवता भी उनकी स्तुति करते हैं । तत्त्वार्थ में जिनका मन हमेशा प्रविष्ट रहता हैं, संकट के समय में देवता रक्षा करते हैं । रातदिन युगप्रधान गुरु के चित्त में यही चिन्ता रहती है कि कहीं भी किसी प्रकार से जिनशासन की निन्दा न हो ।
२१.
कषाय चार प्रकार के है - क्रोध, मान, माया,
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लोभ ।
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