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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
युगप्रधान की स्तुति करनेवाले बहुत ही कम लोग होते हैं। युगप्रधान हमेशा शुभ कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, क्षमाशील होते हैं । युगप्रधान अपनी निन्दा एवं प्रशंशा सुनकर भी समपरिणामी होते हैं, प्राणीमात्र के लिए हर पल कल्याण की कामना करते रहते हैं।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कियुगप्रधान गुरु वही हो सकता है जो पूर्व वर्णित सभी गुणों का सागर हो। ऐसे युगप्रधान गुरु की सभी प्रशंसा करते हैं। युगप्रधान श्री दादाजी की भविष्यवाणी के आधार पर कहा जाता है कि
भगवान महावीर स्वामी का शासन काल इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा; अविच्छिन्न रूप से धर्म का प्रवाह भी चलता रहेगा, दिन-प्रतिदिन नये-एवं योग्य आयामों में प्रचारित एवं प्रसारित होता रहेगा। इस शासन काल के अन्त में आचार्य श्री दुप्पसहसूरिजी' एवं 'सत्य श्री' नामक साध्वी होंगे। देशव्रत को धारण करनेवाले नागिल नामक एक श्रावक होगा और फल्गुश्री नामक एक श्राविका होगी। इस प्रकार उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि भगवान की वाणी इतनी ओजस्वी एवं प्रभावशालिनी थी कि चतुर्विध संघ भी उनका सन्मान करते हैं।
(गाथा ५१-५६) उपरोक्त वर्णनों के बाद आचार्य श्री सद्गृहस्थों के लिए भी पालनीय एवं हितकारी शिक्षाओं का वर्णन करते हुए कहते हैं
सम्यक्त्वधारी श्रावक को साधर्मिक भाई के साथ भाईचारे एवं प्रेमपूर्व व्यवहार को अपनाना चाहिए। आवश्यकतानुसार किसी को द्रव्य की जरूरत हों तो देना चाहिए। यदि उस धन की वापसी न हो तो लड़ाई झगड़ा आपस में नहीं करना चाहिए। लड़ाई-झगड़े एवं कलह के वातावरण से धर्म की निन्दा होती है। श्रावक को अपने द्रव्य का सदुपयोग सात क्षेत्र २२ में करना चाहिए ।) जिन शासन का क्षेत्र विस्तृत है। इसमें श्रावक के लिये ७ क्षेत्र बताये हैं। मुक्ति हेतु “प्रत्येक श्रावक को चाहिए
२२.
भजन पद संग्रह भाग-४, मुनि श्री बुद्धिसागर जी-२६० सात क्षेत्र-साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, जिनमन्दिर, जिनमूर्ति और ज्ञान ।
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