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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
अतः जिन चैत्य में ये रास, रासड़ा आदि नर-नारियों द्वारा किये जाते हैं । इनका जमकर विरोध किया गया है। क्योंकि ये बाह्य शक्ति के साधन होते हुए भी अन्त में केवल चक्षु-श्रोत के विकार मात्र ही रह जाते हैं। ये प्रभु भक्ति के वास्तविक साधन नहीं हैं।
पुनः आचार्यश्री तत्कालीन प्रचलित धार्मिक नाटकों का वर्णन करते हुए कहते
धम्मिय नाडय पर नच्चिजहिं भरह सगर-निक्खमण कहिज्जहिं। चक्कवट्टि-बलरायह चरियइं
नच्चिवि अंति हुत्ति पव्वइयइं ।। ३७॥ पुनः जो योग्य हैं अर्थात् जिन्हें जिनमन्दिरों में दिखाना चाहिए वे धार्मिक नाटक धार्मिक स्थानों में, समाज में प्रशंशनीय होते हैं जो इस प्रकार हैं-भरतेश्वर, बाहुबली, सगर, बलदेव दशार्णभद्राकि के चरित्र आदि । चरित्र के साथ-साथ भरत बाहुबली का निष्क्रमण दिखाना चाहिए। इनका कथन करना चाहिए। ऐसे महापुरुषों के जीवन दर्शन को नाटक के आधार पर बताना चाहिए, जिनसे प्रव्रज्या के लिए संवेगवैराग्य उत्पन्न हो । विविध प्रकार के रास गान नृत्य का अभिप्राय मनोरंजन न होकर वैराग्य भावना की अभिव्यंजना हो। इस प्रकार ऐतिहासिक पुरुषों के नाटक देखने वालों के भाव भी वैराग्ययुक्त बन जाते हैं। इसलिए ही धार्मिक नाटकों आ अभिनय होना चाहिए।
जिन चैत्यों में अशास्त्रीय क्रियाओं के निषेध सम्बन्धी बातों को गाथा क्रमांक ३८ एवं ३९ के द्वारा व्यक्त करते हुए लिखते हैं -
हास खिड्ड हुड वि वज्जिज्जहिं सह पुरिसेहि वि केलि न किज्जहिं । रतिहिं जुवइपवेसु निवारहिं न्हवणु नंदि न पइट करावहिं ।। ३८ !!
२०.
प्राचीन काव्यों की रूप परम्परा-श्री अगरचंदजी नाहटा-पृ. १३८.,
तालरासु रमणि बह, देई लडरासु मूलहु बारेड ।। २१ ।।
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