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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
(क) अपभ्रंश कृतियाँ
१. उपदेश रसायन रास उपदेश रसायन रास अपभ्रंश भाषा में रचा गया हैं। सम्पूर्ण रास में ८० पद्य है, इसमें पद्धटिका (पद्धडिया)छन्द का प्रयोग किया गया हैं। डॉ. दशरथ ओझा के मतानुसार सं. ११७१ में उपदेश रसायन रास की रचना हुई।'
__उपदेश रसायन रास संभवतः उपलब्ध जैन रासग्रंथों में सबसे प्राचीन है। इस रास में पद्धटिका छन्द का प्रयोग किया गया हैं जो “गीतिकोविदैः सर्वेषु रागेषु गीयते इति" के अनुसार सभी रागों में गाया जाता है। इन उद्धरणों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि "उपदेश रसायन रास'को जैन परम्परा की प्रारंभिक प्रवृत्ति का परिचायक माना जा सकता है। उपदेश रसायन रास पर अनेक वृत्तियाँ रची गई हैं और मूल सह संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद किये गये हैं। ३
श्री जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म में अवतरण बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध अर्थात् संवत् ११३२ में हुआ। उस समय देश की राजनैतिक स्थिति तो खतरे में थी ही इसके साथ-साथ तत्कालीन वातावरण भी अत्याधिक कलुषित हो चुका था। राजा लोग छोटी-छोटी रिसायतों से जुड़ गये थे। देश छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो चुका था। सुरा और सुन्दरियों के लिए आपसी विद्रोह बढ़ जाता था। ऐसे समय में जो राजा लोग अपनी ही व्यवस्था में सतत लगे रहते थे वे प्रजा की व्यवस्था के विषय में यदि सोचें भी तो कैसे ? अर्थात् राजनैतिक परिस्थिति बिगड़ चुकी थी। राजाओं का असर मात्र प्रजा पर ही नहीं पड़ता है, वह असर तो सर्वग्राही होकर चारों दिशाओं में सब तरह से फैलने लगता है।
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रास और रासान्वयी काव्य-डा. दशरथ औझा-पृ.३ वही, पृ.४८ (अ) प. पू. जिनपतिसूरिजी के शिष्य उपाध्याय जिनपाल ने वि.सं.१२९२
में संस्कृत छाया लिखी हैं। अपभ्रंश काव्यत्रयी में यह टीका प्रकाशित है। अपभ्रंश काव्यत्रयी- मूल सह संस्कृत छाया पृ. २१ से ६६ -
ओरिएन्टल इंस्टीट्यूट, बड़ौदा चचर्यादि ग्रंथ संग्रह-भाषान्तरसह-आचार्य जिनहरिसागरसूरिजी वि.सं.२००४ सूरत, पृ.१९ से ४३ रास और रासान्वयीकाव्य-डा. दशरथ ओझा, पृ. ४३३ से ४४४
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