________________
युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१५५ इसलिये प्राणी को जीवन में सद्गुरुरूपी वाड़ का सेवन करके, उनका उपदेश आचरण में लाकर मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिये।
आचार्य जिनदत्तसूरिजी ने इस वाडीकुलकम के माध्यम से यह बताया हैं कि प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन में सद्गुरु रूपी वाड़ अर्थात् सद्गुरु की शरण स्वीकार करके स्वरक्षा एवं आत्मकल्याण करना चाहिए।
***
१५. आरात्रिक वृत्तानि १२ प्राकृत पद्यों की यह रचना का शीर्षक श्री अगर चंदजी नाहटा ने आरात्रिक वृत्तानि' दिया है। कृति उन्होने ही प्रकाशित की है। ८७
प्रकाशित कृति का पाठ अत्यंत भ्रष्ट होने से उसका अविकल अनुवाद देना संभव नहीं है। किन्तु उस में आरात्रिक याने आरती के रूपक द्वारा बोध दिया गया है।
भाववाही वसंततिलका छंद में बद्ध यह लघु कृति सरस है। उदाहरण स्वरूप प्रथम गाथा देखेंलोणेण पिछिय सु(?)नाण सलोणयत्तं, मत्तो परो वि किमिहत्थि जणे सलोणे। अप्पा जलंत जलणस्स सुहम्मि खित्तो. खारानियोनय(?) तहा विहु तेण चित्तो ॥१॥
***
८७.
युगप्रधान जिनदत्तसूरि-अगरचंदजी नाहटा, पृ.१०९-११०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org