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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१५७ _इस कलषित वातावरण से तत्कालीन धार्मिक वातावरण अछूता न रह सका। उस समय जैन धर्म का प्रचार प्रसार तो जोरों पर था परन्तु उसमें विभिन्न प्रकार की विकृतियाँ आ चुकी थीं।
उस समय में चैत्यवासी श्रावक-श्राविकाओं द्वारा प्रचलित व अनुसृत अविधि मार्ग अपनी चरमसीमा तक पहुँच चुका था। जैन धर्म में विभिन्न प्रकार की बुराइयाँ प्रविष्ट हो चुकी थी। जैन मुनि अधः पतन के मार्ग पर चलने लगे थे। चैत्यवास तो बहुत पहले से प्रचलित हो चुका था परन्तु आपके आने के समय तक अपनी चरमसीमा तक पहुँच गया था।
चैत्यवास करनेवाले मुनि लोग पूजा करते थे; देवद्रव्य का उपयोग करते थे। देवालय एवं पाठशालाओं को बनवाते थे। शरीर को अंगरागादिक सुगन्धित द्रव्यों से विभूषित कर नृत्य-गान के समय अपनी मर्यादा का भी उलंघन कर जाते थे। ज्योतिषियों का काम करने लगे थे परन्तु सच्चाई एवं परोपकार की भावना से नहीं । लोगों के खुशामदी की प्रथा भी चल पड़ी थी। इन बाह्याडम्बरों के साथ चैत्यवासी मुनि लोग व्यापार में भी प्रवृत्त हो चुके थे। इतना ही नहीं चैत्य एवं मठों को अपनी सम्पत्ति मानने लगे थे। उसके उत्तराधिकारी अर्थात् शिष्य बनाने के लिए अबोध बालकों का क्रय भी करते थे।
तत्कालीन चैत्य एवं मठवासी साधु व मुनि लोग तन्त्र-मन्त्र की प्रक्रिया भी करते थे एवं लोगों को भयभीत भी करते थे। लोगों में इनका वर्चस्व “दिन दूना रात चौगुना' के हिसाब बढ़ रहा था। पश्चिम भारत में तो कहना ही क्या था चैत्यवास एवं उसके प्रभाव से सिवा कुछ दिखायी ही नहीं पड़ता था । संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि उस समय धर्म के नाम देश की धार्मिक दशा अत्यन्त बिगड़ चुकी थीं।
ऐसी विषम परिस्थितियों में “दादा श्री जिनदत्तसूरिजी'का जैनधर्म में अवतरण उस प्रकार हुआ जैसे-आकाश में चारों ओर काले घने बादल छा गये हों, वर्षा की तैयारी हो और कोई प्रचंड ‘तूफान' आकर सबको उडा ले जाय-ठीक वैसे ही दादीजी आये और बाह्याडम्बर एवं कदाचाररूपी धार्मिक बुराइयों को उड़ा ले गये । इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए आपको कठिन परिश्रम एवं कठिनाइयों का सामना भी करना पडा । ऐसी परिस्थिति में आपने उपदेशात्मक कई कृतियों की रचना की। इनमें “उपदेश रसायन' का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
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