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युगप्रधान आ . जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
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व्रत को देशतः पौषध भी कह सकते हैं, पर प्रतिमा में प्रतिपूर्ण पौषध करने का विधान है। आवश्यक सूत्र में पौषध चार प्रकार के बताये हैं । ७२ वह इस प्रकार है :(१) आहार पौषध :- आहार को त्याग करना, आहार पौषध है ।
(२) शरीर - पौषध :- शरीर को सजाना-संवारना आदि प्रवृत्तियों का त्याग करना, शरीर को धर्म प्रवृत्ति में लगाना, शरीर पौषध कहलाता है।
(३) ब्रह्मचारी पौषध: सभी प्रकार के मैथुन का त्याग, ब्रह्मचर्य पौषध है । (४) अव्यापार पौषध :- आजीविका के लिये सावद्य प्रवृत्तियों का त्याग वह अव्यापार पौषध है ।
अतः श्रावक को पौषधोपवास व्रत आत्मअभ्युदय के लिये सर्वोत्तम साधना बतायी है। पौषध में साधक सांसारिक प्रवृत्तियों से मुक्त होकर निरन्तर धर्म जागरण करके आत्म कल्याण करता है ।
आचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी ने हर प्रश्न का उत्तर लगभग शास्त्र सम्मत दिया है | गाथा ३७-४० में कहते है कि पर्वतिथि में तपस्या आदि करनी चाहिये, और अष्टमी आदि तिथियों का महाकल्याणक से सम्बन्ध हो जाय तो तिथियों एवं कल्याणक सम्बन्धी तप कैसे करें ?
आचार्यश्री कहते है कि
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अष्टमी आदि को व्रत योग होता है। व्रत शब्द से कल्याणक आदि में किया हुआ नियम कहा जाता है, तो पर्वतिथियों में उसके संयोग से एकासन करनेवाले को farai गुरुत्तर बड़ा नियम करना चाहिये । अर्थात् एकासनवाले को निवी, निवी करनेवाले को आंबिल और आंबिल करनेवाले को उपवास करना चाहिये । क्योंकि एकासन से निवी बड़ी होती है । यहाँ पर आचार्यश्रीने श्रावकों को छोटी बातों का उत्तर बड़ी ही कुशलतापूर्वक दिया है, जिससे श्रावक अपनी समस्या का समाधान कर सकें
७२.
" पोसहोपवासे चउव्विहे पन्नते तं जहा आहारपोसहे, सरीरसक्कारपोस हे, बंभचेरपोसहे, अव्वावार पोसहे"
(आवस्सयं मूल सुत्तं-सम्पा. -मुनि दीपरत्नसागर ५ / ७९, पृ. ९)
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