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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान गाथा ४३ में इसी बात का पुष्टीकरण किया है कि आलोचना करते समय गुरुमहाराज सज्झाय करने को कहे तब वह सज्झाय हमेशा के नियम से २ हजार श्लोको के स्वाध्याय करने का अभिग्रह है तो वह सदा से अधिक करें, तभी कर्मक्षय होता है। इसी प्रकार पाँचों तिथि में एकासन करता है तो अभिग्रहित तप से अधिक निवी करे तो आलोचना तप माना जाता है।
इसी प्रकार गाथा ४५ से ५० तक सामायिक विषय में प्रश्न पूछे हैं कि सामायिक में श्रावक-श्राविका को कितने वस्त्र पहनने चाहिये ? उत्तर:- सामायिक में श्रावक को एक वस्त्र और अपवाद में तीन वस्त्र औढ़ सकता है। क्योंकि सामायिक में श्रावक साधुवत् है।
उसी तरह श्राविका तीन वस्त्र पहनें। अपवाद में ठंडी लगे तो ओढ़ सकती
अब आगे कर्मवाद का कारण बताते है :प्रश्नः- किसी ने दिशा-परिमाण अधिक चार कोश का रखा है, परन्तु वह एक कोश भी नहीं जाता है तो उसको कर्मबन्ध होता है या नहीं ? उत्तर :- इस प्रश्न का जवाब देते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि चार कोश जाने का परिमाण रखा है, वह जाता नहीं है तो भी उसके अविरति से पैदा होनेवाला कर्मबंध होता ही है। क्रिया से कर्मबन्ध का सम्बन्ध नहीं जितना परिणाम से कर्मबन्धन का सम्बन्ध है।
कर्मबन्धन में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार हेतु बताये हैं। (५२)
वाचकप्रवर उमास्वातिजीने तत्त्वार्थसूत्र मेंमिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगये कर्मबन्ध के कारण माने गये हैं।७३ इसिलिए मानव को हर पल, सावधान रहकर कर्मबंध से बचना चाहिये। अब ग्रंथकार द्विदल के बारे में बताते है:प्रश्न है
कच्चे दूध, दही, छाछ के साथ द्विदल (दो दलवाला अनाज)खाना चाहिये या नहीं?
"मिथ्यादर्शनाविरप्रिमादकषाययोगा बन्धहेतव' तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ८, सूत्र १
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