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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान दूसरे शब्दों में कहें तो पौषध का अर्थ :
“पोषना, तृप्त करना" हम प्रतिदिन भोजन से शरीर को तृप्त करते हैं, किन्तु आत्मा भूखी ही रहती
इस व्रत से शरीर का पोषण न कर, आत्मा को तृप्त की जाती है। आत्मचिंतन कर आत्मभाव में रमण करना पौषधव्रत है।
गृहस्थ श्रावक को गृहस्थाश्रम के उत्तरदायित्वों को निभाने के कारण अवकाश नहीं मिलता है, अतः उसे पर्वतिथि आठम, चौदस, अमावस्या, पूर्णिमा आदि के दिन आत्मविकास और आत्मशक्ति की वृद्धि के लिये पौषध करना चाहिये । आगमों और सूत्रों में भी वर्णित है कि पर्वतिथि को श्रावक पौषध करें।
दशाश्रुतस्कन्ध में स्पष्ट वर्णन है कि श्रावक अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी प्रभृति पर्व दिनों में प्रतिपूर्ण पौषधोपवास करें। ६७ उत्तराध्ययनसूत्र नवमाध्याय की वृत्ति में:
___“पौषधो अष्टम्यादिषु व्रत विशेषः" ऐसा लिखा है। ६८
नवपद बृहद् वृत्ति में कहा गया है- अष्टमी, चतुर्दशी, इन पर्व तिथियों को पौषध करना चाहिये। ६९
दशाश्रुतस्कंधचूर्णि में- उपासक की एकादश प्रतिमा का अर्थ
"प्रतिज्ञा विशेष, व्रत विशेष, तप विशेष । श्रावक, श्रमण सदृश व्रत विशेषों का पालन करता है। उपासक की एकादश प्रतिमा में चौथी प्रतिमा “पौषध'' है। तथा श्रावक के बारह व्रत की दृष्टि से पौषध ग्यारहवाँ व्रत है। '७१
६७.
दशाश्रुतस्कन्ध मूल नियुक्ति चूर्णि-पंन्यासश्री मणिविजयजी गणि ग्रंथमाला-अध्ययन६, पृ.३३ उत्तराध्ययन सूत्र-महो.श्रीमद् भावविजयगणि विरचित वृत्ति, प्रकाशक-श्री जैन आत्मानंद सभा, भावनगर, गाथा-४२, पृष्ठ-२२६. नवपद बृहद् वृत्ति - श्री यशोदेव उपाध्याय रचित बृहद् वृत्ति, गाथा- ५१२. पृष्ठ-२७१. प्रकाशक-जीवनचंद साकरचंद झवेरी उद्धृत-जैन आचार-देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ-३५० वही
७०.
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