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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान
१३३ इन आशातनाओं का सेवन करने से जीव भव-भ्रमण करता है।
अन्त में मांगल्य सूचनार्थ सम्यक्त्वयुक्त श्रावक को गीतार्थ सद्गुरु की व्याख्या बताते हुए कहते हैं
जो सर्वज्ञ वीतराग भगवान की आज्ञा को माननेवाले, लोकप्रवाह से पृथक रहते हुए, भव्यात्माओं को धर्मोपदेश सुनानेवाले, कपट तथा मात्सर्य भाव से निर्मूल, ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना में तत्पर हैं, उन्हींको अपना धर्मगुरु समझे।
ग्रंथ के अंत में आचार्यश्री कहते हैं:
सद्गुरुओं की आज्ञा से उनके संरक्षण में ही विशिष्ट या सामान्य धर्मकार्य विधि-विधान हो सकते हैं। अतः गुरु सान्निध्य और गुरु आज्ञा सर्वोपरि है।
ग्रंथकार ने अन्त में अपना नाम युक्ति से “जिनदत्तसूरि” निर्देशित किया है।
प्रस्तुत ग्रंथ चैत्यवंदन कुलक' में वासक्षेप के प्रकार, चैत्यभेद, अभक्ष्य के भेद, धार्मिक भक्ति, जिन चैत्य में होती आशातनाओं का वर्णन और श्रावकों के द्वारा वर्जनीय व आचारणीय विषयों का सुंदर निरूपण किया गया है।
___ आचार्यश्री ने जैन धर्म का सूक्ष्म ज्ञान गृहस्थ जीवनयापन करने के लिये जनसाधारण को दिया, जिससे जनसाधारण उनके उपदेश पर चलकर, अपना आत्मकल्याण कर सके। इस तरह चैत्यवंदन कुलक ग्रंथ अनेक शिक्षाओं से भरपूर है।
१०. संदेह-दोलावली यह प्राकृत कृति १५० गाथाओं में गुम्फित है। इसमें गाथा छन्द का प्रयोग किया गया है। कृति के रचनाकाल के सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इस कृति की महत्ता इसमें है कि कालान्तर में इस पर अनेक वृत्तियाँ रची गयी
६२.
(क)
(ख
संदेह-दोलावली-प्रबोधचन्द्रगणि सं. १३२० में ४५०० श्लोक परिमाण बृहद् वृत्ति रची। निर्णयसागर, बम्बई, सन् १९१८ । संदेह-दोलावली-उपा.जयसागरजी म.सा.ने सं.१४९५ में १५०० श्लोक परिमाण लघुवृत्ति रची। हीरालाल हंसराज, जामनगर. चर्चर्यादिसंग्रह - जिन हरिसागरसूरि-भाषान्तर सह-सं.२००४, पृष्ठ ६४ से ९७ तक प्रकाशक-जिनदत्तसूरि ज्ञान भण्डार-सूरत ।
(ग)
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