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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान "प्रबोधचन्द्रगणि'' के कथनानुसार
भटिण्डा की खरतर श्राविका के सम्यक्त्व मूलक प्रेषित प्रश्नों के उत्तर में जिनदत्तसरिजी ने इस ग्रंथ का प्रणयन किया था। इससे पता चलता है कि उनकी अनुयायिनी श्राविकाएँ कितनी उच्चतम उत्तरों की अधिकारीणी थी। ६३
इसका अपरनाम “संशय पद-प्रश्नोत्तर” है।
सम्यक्त्व प्राप्ति, सुगुरु व जैन प्रवचन की पुष्टि के लिये यह कृति उत्कृष्ट मार्ग का प्रदर्शन करती है। तत्कालीन गृहस्थ सद् गुरुओं के प्रति किस प्रकार व्यवहार करें एवं पासत्थों के प्रति किस प्रकार रहें तथा विधिचैत्य व अविधिचैत्य का लक्षण, सामायिकादि करने की विधि, प्रासुक व अप्रासुक जल का लक्षण, व्रत-प्रत्याख्यान ग्रहण करने की विधि आदि विषयों का, जैन-शास्त्रों के अनभिज्ञ पुरुषों के लिये यहाँ विवेचन किया गया है।
जिन भव्यात्माओं को जिन-सिद्धान्तों का सम्यक् ज्ञान नहीं है, उनके चित्त में अनेक शंकाए उत्पन्न होती हैं, अतः उन शंकाओं का समाधान करना ग्रंथकार का मुख्य हेतु है। जैसा कि पहले ही बताया गया है कि भटिण्डा की श्राविका के सन्देह निवारण हेतु प्रश्नोत्तर दिया जा रहा है। क्यों कि ग्रंथकार स्वयं ने कहा है कि गीतार्थ गुरुओं की परम्परा के अनुसार कतिपय प्रश्नों का उत्तर कहुँगा। नहीं तो उनके कहे बिना सांशयिक नामक मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है।
सांशयिक मिथ्यात्व का अर्थ
“सन्देहों का निवारण न होना” होता है। उन सन्देहों को युगप्रधान बोधवाले आचार्यों के लिखे हुए वचनों या सिद्धान्तों से मिटाया जा सकता है।
कृति के प्रारंभ में “वीर प्रभु" की स्तुति करके सुविहित गीतार्थ गुरुजनों के अनुसार आचार्यश्री संशयों का उत्तर देते हैं, नहीं तो सांशयिक मिथ्यात्व का दोष लगता है । अतः गुरुजनों के सत्संग से धर्माधर्म के स्वरूप का ज्ञान होता है। यहाँ आचार्यश्री धर्म का स्वरूप बताते हुए, धर्म के भेद और परिभाषा बताते हैं:
धर्म के दो भेद हैं:(१) द्रव्य धर्म (२) भाव धर्म
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६३.tion | संदेह-दोलावली-प्रबोध चन्द्रगणि-प्रस्तावना-पृष्ठ-.।
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