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युगप्रधान आ. जिनदत्तसूरिजी का जैन धर्म एवं साहित्य में योगदान आचार्यश्री जिनमंदिर में होती आशातनाओं पर विवेचन करते हैं :
जिनमंदिर में कम मूल्य का अंगलुंछन (वस्त्र), चन्द्रवे, पिछवाई भेट न करें, मूल्यवान वस्तु ही जिनमंदिर में चढ़ाये।
“अणुचियं नट्ट गीयं च रासयं आसणाइ वि" ॥२५॥ अनुचित श्रृंगार रस का पोषण करनेवाले नृत्यगान आदि करना, रासक गरबा (जो वर्तमान में डांडियों से खेला जाता हैं), मंदिर में शयन करना, थूक आदि फेंकना इत्यादि ८४ प्रकार की आशातनाएं नहीं करनी चाहिए।
अनुचित नृत्यादि होने पर, उसमें नाचनेवाली तरुण स्त्री और बालाएँ अपने लावण्यरस के प्रसार से प्लावित दर्शकजनों के विवेक को नष्ट कर देती हैं। भगवान वीतराग के सन्मुख किसी की दृष्टि ही नहीं जाती है। अतः दर्शन, नमन, वीतराग के पूजादि का अनादर होता है। अतः उपरोक्त कार्यों का जिनमंदिर में निषेध किया गया है।
इस प्रकार अनुचित नृत्यगीत होने पर भी मन विकृत होने की सम्भावना रहती है। इन्हें श्रवण करने पर श्रोताओं के मन में संसार के प्रति अनुराग हो सकता है।
चैत्यवदंन, ध्यानादि से मन विचलित हो जाता है। इसी कारण से ग्रंथकार ने जिनचैत्य में अनुचित रास, नृत्य-गान का निषेध किया है। तथा जिनमंदिर में थूकना
आदि ८४ ६१ प्रकार की आशातनाओं का त्याग करें ऐसी प्रतिज्ञा सम्यक्त्वधारी प्रत्येक श्रावक को करना आवश्यक है।
६१. ८४ आशातनाखेलं केलि कलि कला कुललयं तंबोल मुग्गालयं,गाली कंगुलिया सरीर घुवणं केसे नहे लोहियं । भक्तो सं तय पित्त वतं दसणे विस्सामणं दामणं,दन्त त्थी नह गंड नासिय सिरो सुत्त छवीणं मलं ।।४३९।। मन्तं मीलण लीलयं विभजनं भण्डार दुट्टासणं,छाणी कप्पड दालि पप्पड वडी विस्सासणं नासणं । अक्कंदं विकहं सरत्थघडणं तेरिछसंठावणं, अग्गीसेवणरंघणं परिखणं निस्सीहियाभंजणं ।। ४४० ॥ छत्तो वाहण सत्थ चामर मणोणेगत्तमभंगण,सच्चित्ताणमवाय चायमजिए दिट्टीय नो अंजली। साडे गुत्तरसंगभंगभउडं मोलिं सिरो सेहरं, हुड्डा जिडुहगं डियाइरमणं जोहारचंडक्कियं ।। ४४१ ।। रेकारं धरणं रणं विवरणं वालाण पल्लत्थियं, पाऊ पाय-पसारणं पुडपुडी पकं रउं मेहुणं । जुया जेमण गुज्झ विज वंजणिज सिज्जं जलु मजणे,एमाई य सवज्ज कज्ज मुज्जओ वजे जिणिंदालए
|| ४४२ ॥ (प्रवचन सारोद्धार-जिन मंदिर आशातना-३८ मा द्वार, गाथा-४३९ से ४४२, पृ.१२१ से १२३)
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